मीमांसा दर्शन
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भारतीय दर्शन की छः परम्पराओं में से एक है कर्म-मीमांसा।
आज का जो विज्ञान है, उसे एक शब्द में कहना हो तो वह यही होगा :
मीमांसा!
विज्ञान परिभाषाओं के माध्यम से समय, स्थान और द्रव्य के विषय में माप-जोख करता है। भौतिक विज्ञान समय, स्थान और द्रव्य की प्रकृति का अध्ययन करने की चेष्टा करता है।
इसका आधार तर्क है और तर्क का आधार अनुमान है, जो पुनः मीमांसा की ही सतह मात्र है।
अनुमान की सत्यता गणितीय स्थापनाओं पर अवलंबित होती है और गणित केवल विचार पर आश्रित होता है। विचार भी पुनः शाब्दिक मूल्यांकन है, जिसकी अपनी कोई स्वतंत्र सत्यता नहीं होती।
भौतिक विज्ञान में जिन तीन आधार-बिन्दुओं के बारे में विचार किया जाता है वे हैं :
प्रकाश, जडत्व और गतिशीलता।
इसे ही क्रमशः Light, Inertia तथा movement कहा जाता है। मीमांसा के दृष्टिकोण से यही तीन गुण हैं, जो अव्यक्त प्रकृति (कारण) हैं और इनका अनुमान किया जाता है, जबकि व्यक्त प्रकृति (प्रभाव / कार्य) को प्रत्यक्षतः जाना जाता है। कार्यों के बीच क्रम की कल्पना द्वारा भौतिक विज्ञान के विभिन्न 'निष्कर्ष' प्रस्थापित किए जाते हैं।
इस प्रकार विज्ञान कारणों के संबंध में कितनी भी गहराई तक खोज या अनुसंधान क्यों न कर ले, अव्यक्त के बारे में अनभिज्ञ और संशयग्रस्त ही बना रहता है।
सांख्य दर्शन में प्रकृति के इन तीन अव्यक्त तत्वों को ही उसके गुण कहा जाता है, जो क्रमशः :
सत् (प्रकाश, Light),
रज (movement) और
तम (Inertia)
के समकक्ष हैं।
इन सबका भान जिसे होता है वह न तो भौतिक प्रकाश, गति, या जडता है, बल्कि तीनों गुणों से अछूता, उनका अधिष्ठान तथा आधार होते हुए भी उनसे अप्रभावित होता है।
संवाद की सुविधा के लिए और उसे इंगित करने के लिए 'अहं', 'त्वं' या 'तत्' इन तीन सर्वनामों का प्रयोग किया जाता है, किन्तु वह केवल बाध्यतावश है।
'अहं' (मैं) आत्मा अर्थात् उत्तम पुरुष एकवचन पद है, जो कि 'अस्मि' (मैं-हूँ) का वाचक है, इसलिए 'अहं' आत्मा है, 'अहंकार' अहं-प्रत्यय है।
'त्वं' (तुम) जीव अर्थात् वह चेतन तत्व है, जो 'अहं' के परिप्रेक्ष्य में ही होता है। 'त्वं' मध्यम पुरुष एकवचन पद है, जो कि 'असि' (तुम-हो) का वाचक है, इसलिए 'त्वं' चेतना है, जो चेतन प्राणियों में ही पाई जाती है।
अपने अतिरिक्त अन्य वस्तुएँ चेतन अथवा जड हो सकती हैं ।
'तत्' (वह) पद का प्रयोग ऐसी वस्तुओं को इंगित करने के लिए किया जाता है। 'तत्' अन्य पुरुष एकवचन पद है जिससे केवल जड वस्तुओं को ही इंगित किया जाता है ।
'तत्' पद का प्रयोग ब्रह्म के लिए भी किया जाता है, क्योंकि ब्रह्म का कोई ऐसा लिंग या लक्षण नहीं पाया जाता, जो स्त्रीलिंग या पुंल्लिंग की तरह व्यक्त होता हो। इसलिए ब्रह्म को नपुंसकलिंग सर्वनाम 'तत्' से इंगित किया जाता है।
किन्तु ब्रह्म को जड और / या चेतन भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि ब्रह्म के बारे में जिसे भान है वह 'अहं' ब्रह्म से अन्य नहीं अर्थात् अनन्य है।
इसलिए ब्रह्म तथा 'अहं' दोनों ही एकमेव चैतन्य मात्र हैं और समस्त भेद आभासी और काल्पनिक हैं।
समय, स्थान और जडता, गति, सभी आभास और कल्पना हैं।
'अहं' नित्य चेतन (conscious) होता है,
'त्वं' प्रसंग के अनुसार चेतन (sentient),
या जड (insentient) हो सकता है,
'तत्' नित्य जड (insentient) होता है ।
ये तीनों भौतिक विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में क्रमशः प्रकाश, गति, और जडत्व के समानांतर हैं।
इस पूरी विवेचना में 'ईश्वर' का क्या स्थान है?
'ईश्वर' को 'अहं' पद से इंगित नहीं किया जा सकता,
ईश्वर को 'त्वं' पद से संबोधित करते ही 'ईश्वर' तथा 'अहं' के बीच एक विभाजन हो जाता है, तथा 'तत्' पद से इंगित करते ही वह अपने से भिन्न हो जाता है। फिर भी 'ईश्वर' के अस्तित्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता, जो एक है, अनेक भी है, एक और अनेक से परे भी है। एक और अनेक, गुण हैं। ईश्वर गुण-निर्गुण आदि तक सीमित नहीं हो सकता।
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