कविता : 12062021
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वैज्ञानिक / गणितज्ञ
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सोचता था वह अकसर,
क्या ही अच्छा हो अगर,
हो स्केल कोई रबर की,
छोटी बड़ी हो वक्त पर!
दोस्त हँसते थे सब उसके,
समझते थे उसे पागल,
हँसते थे शिक्षक उस पर,
दूसरे भी सब उस पर!
उसने भी फिर तय किया,
क्यों न खोजें कुछ ऐसा ही,
खोज ऐसी चीज़ की,
आसान है, मुश्किल नहीं!
गया उसका ध्यान तब,
ऐसी ही एक चीज़ पर,
नाप सकता है कोई भी,
जब भी जो चाहे अगर!
और ये हैरत कि वह भी,
चीज़ भी ऐसी ही है,
जिसको सब हैं जानते,
जिससे हैं वाकिफ सभी!
फिर जो उसने राज़ यह,
जो पूछकर सबसे देखा,
कोई न दे पाया जवाब,
उससे फिर सबने पूछा ।
वक्त ही क्या वह शै नहीं,
जिससे हैं वाकिफ सभी,
जो कभी होता है लंबा,
या कि फिर छोटा कभी!
हाँ नाप सकता है उसे,
जो भी चाहे आदमी,
और उसके ही सहारे,
चलता है संसार भी!
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