June 08, 2021

तो मेरे कितने घर!

कविता : 08-06-2021

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तीतर के दो आगे तीतर, 

तीतर के दो पीछे तीतर,

बोलो कितने तीतर? 

एक तो वो, जो मेरे बाहर, 

वो भी एक, जो मेरे भीतर,

बोलो मेरे, हैं कितने घर?

मैं हूँ कहाँ, कहाँ मेरा घर, 

मैं जो भी हूँ, वह मेरा घर! 

सवाल यह है, कौन हूँ मैं, 

सवाल यह है, क्या हूँ मैं!?

अतीत है एक, स्मृति है एक, 

भविष्य है एक, कल्पना, एक!

लेकिन हैं जिस वर्तमान में, 

दोनों, वह वर्तमान भी एक! 

तीनों तीतर, आगे-पीछे,

एक-दूसरे के हैं पीछे, 

क्या हैं, कितने हैं तीतर, 

बोलो कितने तीतर! 

पानी केरा बुदबुदा, 

अस मानस की जात,

देखत ही छिप जाएगा, 

ज्यौं तारा परभात! 

मैं पानी का बुदबुदा, 

मैं पानी की जात,

मैं मानस, मैं बुदबुदा,

मानस मेरी जात! 

मेरे इतने घर लेकिन,

नहीं ठिकाना एक,

इसीलिए रचता रहता,

रहने के लिए अनेक! 

कभी अतीत में जा रहता,

कभी भविष्य के सपने में, 

कभी ढूँढ़ता खुद को बाहर, 

कभी ढूँढ़ता 'अपने' में! 

तीतर के दो आगे तीतर, 

तीतर के दो पीछे तीतर,

एक भटकता है बाहर,

एक छिपा रहता है भीतर! 

तो मैं तीतर, तितर-बितर, 

खुद अपने ही बाहर भीतर,

नित व्याकुल, नित घबराता,

नहीं कहीं, मैं आता जाता!

तीतर के दो आगे तीतर,

तीतर के दो पीछे तीतर,

बोलो कितने तीतर!!

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