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विचार-स्वातंत्र्य
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बेहतर होगा कि पहले हम प्रेम और संबंध के बारे में ठीक से जानने का प्रयास करें।
प्रत्येक जीव प्रेम को जानता है। उसे सर्वप्रथम और सर्वाधिक प्रेम तो अपने-आप से ही होता है। इसलिए ऐसा कोई नहीं जो मूलतः प्रेम से अनभिज्ञ होता हो।
फिर संबंध क्या है?
क्या संबंध आवश्यकता ही नहीं होता?
जीवन के लिए अनुकूल अपरिहार्यतः आवश्यक स्थितियाँ और वस्तुएँ निरंतर बदलती रहती हैं। आवश्यकताएँ किसी सीमा तक अधूरी या पूरी हो पाती हैं। उनके पूरे होने पर संतुष्टि का अनुभव होता है। उनके अधूरे होने पर असंतोष अनुभव होता है। इस संतुष्टि को ही सुख तथा असंतुष्टि को दुःख समझा जाता है। अतः सुख एवं दुःख दोनों अनुभव ही हैं और अनुभव है स्मृति। स्मृति ही संबंध और संबंध का तथा अनुभव का सार है।
क्या प्रेम --स्मृति या अनुभव, --संबंध अथवा विचार है?
स्पष्ट है कि स्मृति, संबंध, अनुभव कोई भौतिक या अभौतिक, मूर्त या अमूर्त वस्तु कभी नहीं बल्कि विचार के ही रूप में मन में प्रकट-अप्रकट होते रहते हैं। और विचार स्वयं भी मस्तिष्क की एक यांत्रिक गतिविधि है। विचार की यह गतिविधि किन नियमों से संचालित होती है यह कहना तो कठिन है किन्तु इसके शुरू होने के लिए प्रेरक कारक अनेक होते हैं।
भाव से विचार की, और विचार से भाव की, भाव से भावना की तथा भावना से भाव की, और भावना से विचार एवं विचार से भावना की प्रेरणा जागृत हो सकती है। विचार को ही बुद्धि भी कहा जा सकता है।
यह किसी स्मृति के उठने से हो सकता है, या बाहरी परिस्थिति से भी हो सकता है। मनुष्य की स्थिति में, उसका समाज, लोग और सामाजिक मान्यताएँ आदि से भी ऐसा हो सकता है।
क्या प्रेम, स्मृति, या अनुभव, संबंध अथवा विचार है?
इसी प्रकार प्रेम न तो कोई भाव, भावना, भावुकता, आदि है।
प्रेम बुद्धि भी नहीं है, न बुद्धिजनित अवस्था, आदर्श, नैतिकता या अनैतिकता, श्रद्धा, आस्था, विश्वास, संदेह, अज्ञान या ज्ञान, लोभ, भय, अविश्वास, आदि है।
इसी प्रकार प्रेम, --काम अथवा कामुकता भी नहीं है।
ये सभी मन की अस्थायी स्थितियाँ और अवस्थाएँ हैं।
और प्रेम आवश्यकता भले ही हो, स्थिति या अवस्था नहीं है।
फिर भी प्रेम ही सभी का मूल स्रोत, उत्स और उद्गम है।
जैसे ही प्रेम, जो नित्य जीवन है, इनमें से किसी में परिवर्तित हो जाता है, प्रेम नहीं रह जाता। वह बस नष्ट हो जाता है, क्योंकि प्रेम यद्यपि नष्ट या विलुप्त तो हो सकता है, विकृत कदापि नहीं होता।
इसलिए किसी को शब्दों से प्रेम होता है, किसी को किसी वस्तु, विचार, व्यक्ति, समुदाय, संबंध, स्मृति, आदर्श, लक्ष्य, धर्म, ईश्वर, राष्ट्र या संकल्प से प्रेम होता है, किन्तु ऐसा कोई भी नहीं, जिसे किसी न किसी से प्रेम न हो।
यदि कोई ऐसा है भी, तो ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उसका प्रेम कहीं कुंठित या अवरुद्ध होकर रह गया है। तब वह हिंसक, क्षुब्ध, उग्र और विकल हो उठता है।
विचार सदा किसी से बँधा होता है, इसलिए वैचारिक-स्वातंत्र्य जैसी कोई वस्तु हो ही नहीं सकती।
जो किसी भी विचार से बँधा होता है, वास्तव में प्रेम के अभाव के कारण ही किसी से बँधकर उस अभाव को दूर करने का असफल प्रयास सतत करता रहता है ।
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