उचित-अनुचित की पराकाष्ठा
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इसे हमारा प्रमाद, या दुर्भाग्य कहा जाए या विधाता का विधान, कि भारतवर्ष के विगत 2,000 वर्षों के इतिहास में जो हमारे साथ घटित हुआ उसके लिए हम स्वयं ही उत्तरदायी हैं।
इसे ही :
"समरथ को नहिं दोष गुसाईं"
की उक्ति से भी देखा जा सकता है।
विदेशी आक्रान्ताओं ने भारत के सनातन धर्म को कुटिलता से प्रत्यक्षतः एवं अप्रत्यक्षतः नियोजित रीति से नष्ट-भ्रष्ट किया उस तरफ हमारा ध्यान जाना तो दूर की बात, हमें उसकी भनक तक न लग सकी, क्योंकि हम अपनी आपसी छोटी-छोटी शत्रुताओं और अहंकार के दंभ में लिप्त थे।
इसका एक उदाहरण जयचन्द और आम्भि हो सकते हैं, किन्तु दूसरा उदाहरण स्वयं पुरु (पोरस) तथा पृथ्वीराज चौहान भी थे। पृथ्वीराज ने मोहम्मद गोरी को इसका मौका ही क्यों दिया कि वह 17 बार भारत पर आक्रमण कर सका!
परन्तु इस पोस्ट में एक अन्य उदाहरण को आधार बनाकर पाप-पुण्य और नैतिकता-अनैतिकता के प्रश्न के बारे में विचार किया जा रहा है।
प्रश्न यह है :
समाज और व्यवस्था को, अपना आचरण न्यायसंगत है या नहीं इसे नैतिकता-अनैतिकता की कसौटी पर तय करना चाहिए, या पाप क्या है और पुण्य क्या है, इस कसौटी पर?
सभी विदेशी शासकों और नीति-निर्माताओं ने कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्धारण पाप-पुण्य के आधार पर अर्थात् पाप क्या है और पुण्य क्या है, इस कसौटी पर नहीं, बल्कि उनके परंपरा से उन्हें प्राप्त (तथाकथित) धार्मिक ग्रन्थों में वर्णित और परिभाषित पैमानों से किया, जबकि भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्रों ने जो अपने तथा दूसरों सभी के लिए भी अशुभ तथा पतन का कारण है, उसे 'पाप' या 'पातक', और जो स्वयं और दूसरों के लिए भी शुभ, उत्कर्ष तथा वास्तविक कल्याण का कारण है उसे 'पुण्य' का नाम दिया।
पाप और पुण्य मूलतः एक ऐसा कर्म ही है, जिसका मनुष्यमात्र के लिए, इसीलिए पूरे समाज तथा संसार के लिए भी अशुभ या शुभ फल होता है।
नैतिकता-अनैतिकता के आधार पर उचित या अनुचित, कर्तव्य या अकर्तव्य की शिक्षा देनेवाले (बुद्धिजीवी / विचारक) पाप-पुण्य के मौलिक तत्व को जान-बूझकर या शायद संयोगवश ही भूलकर केवल किसी वर्ग-विशेष के सांसारिक-भौतिक लाभ-हानि को दृष्टि में रखकर हमारा ध्यान इस आवश्यक, व मौलिक प्रश्न से हटा देते हैं कि मनुष्य का आचरण, - पाप क्या है, पुण्य क्या है, इस आधार से कर्तव्य तथा अकर्तव्य तय किया जाना चाहिए या किसी और आधार (कसौटी) से?
यही मौलिक भेद पाप-पुण्य और नैतिकता-अनैतिकता के बीच है।
अभी कोरोना महामारी का विस्फोट हुआ।
प्रश्न उठा कि कोरोना की औषधि, उपचार क्या हो सकता है?
हमें अन्ततः इस सत्य को चाहे-अनचाहे, जाने-अनजाने स्वीकार करना ही होगा कि जब तक मनुष्य और समाज, नैतिकता तथा अनैतिकता (ethical / unethical, moral / immoral) के पैमाने से न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य को तय करने का प्रयास करता है तब तक केवल एक विचारधारा या विचार से दूसरे विचार या विचारधारा के बीच भटकता रहता है।
किन्तु जब मनुष्य और समाज पाप-पुण्य के पैमाने / कसौटी से न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित, कर्तव्य-अकर्तव्य को तय करने का प्रयास करता है, तो विचार की सीमित क्षमता से परे जाकर, विचार से ऊपर उठकर, विवेक का आविष्कार और प्रयोग करने लगता है। इसे शायद प्रत्युत्पन्नमति :
"Out of the box thinking"
कह सकते हैं।
विवेक से सभी के लिए और सभी के साथ अपने लिए भी जो हितकारी है, ऐसा शुभ कर्म या जो अन्ततः इस प्रकार सभी के लिए और अपने लिए भी अहितकारी है, ऐसा अशुभ कर्म क्या हो सकता है इस ओर ध्यान दिया जाना संभव हो पाता है।
दूसरी ओर, जब मनुष्य विचार और वैचारिक आधार तथा नीति-अनीति (ethics and morality) के छद्म से मोहित-बुद्धि हो केवल अपनी स्वार्थ-साधना में तत्पर होता है, तब विवेक पर भी उसका ध्यान नहीं जा पाता। तब अपना वर्ग, जाति, समुदाय, समाज आदि को ही केन्द्र में रखकर नैतिक-अनैतिक क्या है, इसे तय किया जाता है।
इसलिए युद्ध न्यायसंगत है या नहीं इस प्रश्न के बहाने मनुष्य और समुदाय :
"सबके लिए क्या शुभ और हितप्रद है, और क्या अहितप्रद और अशुभ है?"
इस बुनियादी प्रश्न से पलायन कर जाता है।
तब वह यह नहीं देख पाता कि युद्ध बाध्यता है, या कर्तव्य।
इस प्रकार समाज अर्थात् धरती पर मनुष्यों का जो समूह है वह अनेक वर्गों में बँट जाता है।
ऐसा ही कोई वर्ग किसी विचार-विशेष को महत्व देकर उसे आदर्श और ध्येय मानकर उसका प्रचार, प्रसार और विस्तार करने को ही परम महत्वपूर्ण मानने लगता है।
ऐसा ही एक प्रेरक विचार है :
'प्राकृतिक न्याय का सिद्धान्त'
जिसकी दुहाई सभी देते हैं, भले ही अपनी मान्यताओं के संबंध में वे एक-दूसरे के कट्टर शत्रु ही क्यों न हों।
आभास तो यही होता है कि इस विचार से मनुष्य-मनुष्य के भेद से ऊपर उठकर सबको समान समझने की प्रेरणा मिलती है। इसे 'नैतिकता' भी कहा जा सकता है।
क्या विचार और वैचारिकता के इस आधार को व्यवहार के स्तर पर सरलता से प्रयोग में लाया जाना संभव है?
लगता तो यही है कि नैतिकता की इस कसौटी पर सभी सहमत होंगे। किन्तु फिर, स्वार्थ से प्रेरित होकर इसका रूपान्तरण :
"all are equal but some are more equal than the others"
में हो जाता है।
भिन्न भिन्न स्वार्थ-केन्द्रित वैचारिकताएँ और सामूहिक विभाजन इस प्रकार और अधिक आग्रह से अपने अपने पक्ष में उग्रता से प्रतिबद्ध होकर कार्य करने लगते हैं और तब समष्टि हित दृष्टि से ओझल हो जाता है।
कोरोना का उद्भव और उससे सामना करने का हमारा प्रयास हमारी इसी विवशता, उत्तरदायित्वहीनता, सामूहिक मूर्खता तथा मूढ़ता की ओर संकेत करता है।
यदि कोई राष्ट्र-सत्ता या मनुष्यों के किसी भी वर्ग की राजनैतिक शक्ति जो अपने-आपको घोषित या अघोषित रूप से किसी भी (तथाकथित) धर्म-विशेष से जुडी़ या किसी राजनैतिक वाद के अनुसार नास्तिक भी मानती हो, और इस प्रकार धर्मनिरपेक्ष या तटस्थ भी हो, और अपने आपके न्यायसंगत होने का दावा भी करती हो, तो उसे अपने तथाकथित नैतिक मूल्यों के लिए कोई आधार या कसौटी तो तय करना ही होगी। स्पष्ट है कि वैचारिक भिन्नताएँ ऐसा कोई सुनिश्चित समुचित आधार नहीं हो सकती क्योंकि वे मूलतः परस्पर भिन्न और अनेक बार एक-दूसरे की प्रखर और घोर विरोधी तक होती हैं। यही तो हमारे समय की विडंबना / दुखती रग है!
दूसरी ओर यदि हमारा ध्यान इस पर हो कि वह पाप-पुण्य क्या है, - जिसको आधार बनाकर ऐसी कोई कसौटी तय की जा सके, तो अवश्य ही वैचारिकताओं की भूलभुलैयाओं और विसंगतियों आदि से छूटकर सबके लिए हितकारी मूल्यों को स्पष्ट रूप से परिभाषित और तय भी किया जा सकता है।
कोरोना का वायरस प्रकृति से आया, प्रयोगशाला में बनाया गया या उसे भूल से या इरादतन जान-बूझकर लीक कर दिया गया, इसे जान पाना वैसे भी बहुत कठिन है, किन्तु इसे जान लेने के बाद भी इस वायरस के दुष्प्रभावों से बच पाना तो उससे और भी ज्यादा कठिन है।
किन्तु जिस मानसिकता से प्रेरित होकर से इस मुद्दे के हल के बारे में प्रयास किए जा रहे हैं वह मानसिकता भी मनुष्य को केन्द्र में रखकर इस विचार पर आधारित है कि मनुष्य के हित के लिए दूसरे समस्त जीवों के जीने के अधिकार की अवहेलना कर दी जाए। क्या यह "प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त" के अनुरूप है?
प्रश्न उठता है कि हमारी तमाम वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद क्या हम इस अथवा किसी भी वायरस की उत्पत्ति के मूल कारणों को जान सके हैं?
एक आनुषङ्गिक (किन्तु गौण नहीं) प्रश्न यह भी उठ खड़ा हुआ है कि वैक्सीन का निर्माण जिस विधि से किया जाता है उसमें गौवंश (bovine) से प्राप्त सीरम को आधार बनाकर वैक्सीन विकसित किया जाता है और इसलिए यह प्रश्न किसी वर्ग या समुदाय के लिए केवल सामाजिक नैतिकता का न होकर धर्म से जुड़ा मामला हो जाता है।
क्या तथाकथित वैज्ञानिक समझ को बलपूर्वक किसी समुदाय पर थोपा जा सकता है! नैतिकता (ethics) के आधार पर इस बारे में क्या कहा जा सकता है?
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--- क्रमशः ...
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