किसी ने कहा है :
माया महाठगिनी!
शायद माया और चिन्ता एक ही वस्तु है।
जैसे माया बड़े-बड़े ज्ञानियों ध्यानियों का पीछा नहीं छोड़ती, चिन्ता भी इसी तरह सबके साथ लगी रहती है।
साधु-सन्त हों, तथाकथित वैरागी-संन्यासी, या वैज्ञानिक विद्वान, सभी चिन्ता के वश में होते हैं। चिन्ता भी माया की ही तरह वैसे तो निराकार और अमूर्त होती है, किन्तु अपने प्रभाव की दृष्टि से माया की तुलना में अधिक प्रत्यक्षतः अनुभव होती है।
चिन्ता भी क्या आशा का ही पर्याय नहीं है!
कालः क्रीडति गच्छति आयुः तदपि न मुञ्चति आशावायुः।।
उक्त पंक्ति के बारे में किसी पाठक का आग्रह था, कि यहाँ आशा का तात्पर्य hope नहीं, desire (इच्छा) है!
कठोपनिषद् १,१ के अनुसार :
आशाप्रतीक्षे संगत्ँ सूनृतां च
इष्टापूर्ते पुत्रपशूँश्च सर्वान्।
एतद् वृङ्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो
यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे।। ८
के सन्दर्भ में आशा का अर्थ इच्छा से उत्पन्न मनोदशा हो सकता है। इच्छा, आशा, अवश्य ही 'भविष्य' नामक अमूर्त और अग्राह्य काल्पनिक वस्तु की प्राप्ति होने की संभावना से प्रेरित विचार मात्र होता है। इस प्रकार यद्यपि कोई आशा, इच्छा यदि पूर्ण हो भी जाती है, तो भी ऐसी अनेक दूसरी आशाएँ और इच्छाएँ तो निरंतर उत्पन्न होती रहती हैं जिनका पूर्ण होना असंभव होता है, क्योंकि उनमें से बहुत सी परस्पर विरोधाभासी और विसंगत ही होती हैं।
चिन्ता इस अर्थ में और भी विलक्षण है, कि उसमें आशा के साथ साथ आशंका भी छिपी होती है। आशंका अर्थात् यह डर भी कि कहीं कुछ अनिष्ट न हो जाए।
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क्रमशः --
अगली पोस्ट में भी...
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