June 30, 2021

अस्तित्व और भान

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भान, प्रेम और ज्ञान

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अस्तित्व का भान अस्तित्व से अभिन्न है। 

अस्तित्व है तो उसका भान है, और निःसन्देह भान का अस्तित्व ही भान है। इस प्रकार भान और अस्तित्व एक ही वस्तु को दिए गए दो अलग अलग शब्द मात्र हैं।

किन्तु यह सत्य भी इतना ही रोचक तथ्य है कि अस्तित्व और उसके भान में जिसका अस्तित्व है, वह उससे अभिन्न है जिसे कि अस्तित्व का भान है।

इसलिए ऐसे अस्तित्व और इस भान में अपने-पराये अर्थात् 'मैं' तथा 'मुझसे भिन्न' जैसा कोई विभाजन होता ही नहीं ।

किन्तु जब इसी अस्तित्व अर्थात् भान में बुद्धि के सक्रिय होने पर 'मैं' नामक विचार उठता है तो जो ज्ञानरूपी आभास पैदा होता है उस ज्ञानरूपी आभास में ही पुनः 'मैं' नामक विचार का रूपान्तरण 'मैं' के कर्ता, विचारकर्ता, अनुभवकर्ता, तथा स्वामी होने के रूप में प्रतीत होने लगता है।

स्पष्ट है कि अस्तित्व तथा भान किसी 'चेतना' के अन्तर्गत संभव होते हैं। यह चेतना मूलतः तो यद्यपि ज्ञान-अज्ञान-निरपेक्ष, नित्य, शाश्वत, चिरन्तन, काल-स्थान-निरपेक्ष अधिष्ठान-मात्र ही होती है, किन्तु किसी शरीर-विशेष से इसका संबंध होने पर इसे इसके निर्वैयक्तिक स्वरूप से भिन्न वैयक्तिक प्रकार की तरह बुद्धि के अन्तर्गत स्वीकार कर लिया जाता है।

इस प्रकार से 'मैं' के अस्तित्व को ज्ञान के माध्यम से एक स्वतंत्र सत्ता की तरह अपने-आपका अस्तित्व समझ लिया जाता है। 

यह 'मैं' अर्थात् आभासी सतत विकारशील स्वतंत्र सत्ता जब अपने स्रोत को खोजने में प्रवृत्त हो उठती है, तो इसका ध्यान ज्ञान-अज्ञान-निरपेक्ष उस भान की ओर जाता है जो कि इसका अविकारी अस्तित्व और इसकी वास्तविक निजता है।

अपनी यह निजता ही अस्तित्व, अस्तित्व का भान, तथा वह प्रेम है जो अविकारी, परस्पर अविभाज्य तथा अनिर्वचनीय है।

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