~~"प्रारब्ध"- एक नई दृष्टि~~
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(वेदांत की स्थापित, शास्त्र-सम्मत दृष्टि से, "प्रारब्ध",व्यक्ति-विशेष द्वारा अतीत में किया गया वह 'कर्म'
होता है, जिसके 'फलित' होने का समय आ गया है ,
किन्तु यहाँ पर समष्टि-प्रारब्ध को सन्दर्भ में रखकर,
उस दृष्टि से "प्रारब्ध" क्या है, क्या हो सकता है, इसे
समझने का प्रयास किया जा रहा है ."आत्म-विचार"
में इसकी भूमिका पर ध्यान देते हुए, एक अन्य दृष्टि
से उसे रेखांकित किया जा रहा है .इस दृष्टि से शायद
इसमें नयापन है. अतः महत्त्वपूर्ण है; "आत्म-विचार",
"प्रारब्ध" पर उसे ही केंद्र में रखते हुए, कुछ लिखने की
चेष्टा की जा रही है,........)
....... व्यक्ति,वस्तु, विषय, स्थान, घटना (समय/काल) के
सन्दर्भों में गतिशील होता है . व्यक्ति के सन्दर्भ में इसे यूँ
देखें कि मान लीजिये आप बीमार पड़ गए हैं, डॉक्टर ने
बतलाया, टॉयफ़ाइड है. हफ्ते-दस दिन में ठीक हो जाएगा .
फ़िर जाँच और चिकित्सा का दौर चला .
आप कितने स्वतंत्र हैं ?
सारी परिस्थितियाँ आपकी मानसिकता और मानसिक
स्थितियों को प्रभावित करती हैं, और उनसे प्रभावित भी
होती हैं .
आपकी चिन्ताएँ, इच्छाएँ, आशाएँ, भय, जोश, उत्साह,
निराशा, या विषाद, उद्वेग या विकलता आपसे पूछे बिना ही
आपके चित्त में आते-जाते रहते हैं, और आप उनके हाथों की
कठपुतली ही तो होते हैं !
लेकिन ज़रा रुकिए .
क्या इन चिंताओं, इच्छाओं, आशाओं, भयों, उद्वेगों, विषादों,
विकलताओं, भावनाओं आदि की ही भाँति 'विचार' भी आपके
चित्त में प्रायः अनचाहे ही नहीं आया करते ?
"मैं स्वतंत्र हूँ," या "मैं स्वतंत्र नहीं हूँ," ये विचार भी तो इसी
तरह आपके चित्त को छूते रहते हैं, और कभी-कभी आप पर
वे हावी भी तो हो जाया करते हैं .
......... व्यक्ति, वस्तु विषय, स्थान, घटना (समय/काल) के
सन्दर्भों में गतिमान रहा करता है, ----- : "प्रारब्ध".
"विचार" सबको परिभाषित करता चलता है और अपने द्वारा
तय की गयी परिभाषाओं (धारणाओं) के जाल में फँस जाता
है .
क्या आप "विचार" हैं ?
क्या "प्रारब्ध", -"विचार" का ही नहीं होता ?
क्या "प्रारब्ध", -"विचार" ही नहीं होता ?
क्या "विचार" ही अन्य सारी चीज़ों की ही तरह, "मैं" को भी
प्रक्षेपित, परिभाषित, 'तय' नहीं करता ?
पुनः, क्या "विचार" ही इस "मैं" की प्रतिमा का शिल्पकार भी
नहीं होता ?
क्या वही अपने द्वारा स्थापित, 'सृजित', परिभाषित, प्रक्षेपित,
प्रतिमा को पोषित और समृद्ध नहीं करता ?
क्या "विचार" द्वारा पैदा किया गया यह "मैं", "विचार" का
ही विस्तार, उसकी ही संतति, उसका ही सातत्य, उसकी ही
निरंतरता नहीं होता ?
क्या आप यह सब हैं ?
क्या आप यह सब हो सकते हैं ?
फ़िर आप क्या हैं, कौन हैं, क्या यह जानना/समझना ज़रूरी,
महत्त्वपूर्ण नहीं हो जाता ?
आप क्या 'नहीं' हैं यह तो स्पष्ट ही है, और इतने पर राजी
होना भी एक उपलब्धि है, ऐसा कह सकते हैं. फ़िर आप जो
हैं, शायद एक रिक्तता, या ऐसा कुछ,जिसे आप कभी कह ही
नहीं सकते, -वह जो भी होता हो, वह तो आप बेशक हैं ही !
.....और उसे आप नाम देना चाहेंगे तो क्या पुनः "विचार" के
ही यंत्र की सहायता नहीं लेंगे ? क्या तब आप पुनः "विचार"
के ही प्रपंच में नहीं फँस जाते हैं ?
फ़िर "प्रारब्ध" क्या है ?
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