November 02, 2010

शून्य और मेरा असमन्जस


~शून्य, 


और मेरा असमंजस~
__________________________________
**********************************

A glass of pure water

by Manjula Saxena on Tuesday, November 2, 2010 at 4:28pm




का हिन्दी अनुवाद .

जीवन के मिलनोत्सव  में,
बियाबान के पिछवाड़े,
अपनी ही विशिष्ट शैली में,
अवतरित हुई एक मंडली .
अनेक छद्म बुद्धिजीवी, 
-अनेक स्थापित विद्वान्,
जो अपनी भावनात्मक संवेदनशीलता का
             दंभ भरते हुए,
सीख देते रहे मासूमों को,
कर्कश वाणी में,
ऊब की हद तक.
उत्सव-मग्न उनमें से कई थे,
जिनके पास 'मौलिकता' का अपना एक,
-संकीर्ण नज़रिया / 'पैमाना' था,
कुछ 'पंडित' भी थे वहाँ, 
जो कर रहे थे भ्रमसर्जना,
-यथार्थ की सूक्ष्म तोड़-मरोड़,
अनुमानों के सहारे,
प्रपंच-जाल, क्षरणशील भावनाएँ,
जिनमें भरी थीं,
सुखाकांक्षा  को तृप्त करने की  महती लालसाएँ,
मेज पर प्रस्तुत थीं,
भाँति-भाँति की सुस्वादु विविधताएँ,
राग-ज्वर में रंगीं,
रक्तिम-माँसल मैत्रियाँ,
ईर्ष्या की किनार-जड़ी,
मरकती हरित-पीत प्रशंसा,
खिन्नता का भूरापन लिए,
लोभ की नीली कौंध,
सियाह रजत-धवल विक्षोभ,
आभिजात्य का अभिमानी रोष,
संरक्षक होने की श्रेष्ठता की भावना का,
रतनार रंग,.....
रंगों की धूम,
आह !....
सभी कलुषित,
मिली-जुली पुनरावृत्तियाँ,
विकसित, संपन्न किन्तु मायूस,
निष्प्राण और खोखले लोगों के समाज का,
एक प्रत्यक्ष उदाहरण,
स्नेह के तौर तरीकों से अनभिज्ञ,
किन्तु शिष्टाचार के सुदर्शन आवरण में,
कोरी भावनाओं का,
कुशलता से आदान-प्रदान करनेवाले !
सभ्यता,
-क्या महज़ एक प्याज है ,
जिसमें बस छिलके ही छिलके होते हैं ?
जिसे छीलकर,
परत दर परत अनावरित करते हुए,
बदले में बस तिक्त आँसू ही आँखों से टपकते हैं ?
मैं यहाँ किस असमंजस में हूँ ?
-असमंजस क्यों है ?
मैंने सिर्फ एक गिलास शुद्ध, साफ़,
स्वच्छ जल ही तो माँगा है !!

___________________________________
***********************************







8 comments:

  1. अनेक छद्म बुद्धिजीवी,
    -अनेक स्थापित विद्वान्,
    जो अपनी भावनात्मक संवेदनशीलता का दंभ भरते हुए,..आप ने सही अनुवाद किया है जी ........बिलकुल सटीक शब्द दर शब्द .....मैने कल भी यही कहा था मंजुला जी के वाल पर की ...ये छद्दम बातें ये बुदिजेवी कभी साधारण मनुष्य के बारे मैं सोच पाए है क्या .....????? और नहीं सोच पाए तो क्या ये सब जो तिलक के साथ संकीर्ण नज़रिया,प्रपंच-जाल, क्षरणशील भावनाएँ,सुखाकांक्षा को तृप्त करने की महती लालसाएँ,राग-ज्वर में रंगीं,
    रक्तिम-माँसल मैत्रियाँ,
    ईर्ष्या की किनार-जड़ी,
    मरकती हरित-पीत प्रशंसा,
    खिन्नता का भूरापन लिए,
    लोभ की नीली कौंध...आदि आदि ...सब रखने का एक साधारण प्राणी के बारे मैं हक है क्या .... और एक साधारण प्राणी को क्या चाहिए ...आसूं तो नहीं मागे थे जी ...एक गिलास शुदा जल की ही आशा थी .....अगर वो न दे सका तो ...फिर क्यू वो दम भरता है इस अहः के साथ इस का !!!!!!!!!सुन्दर नोट ....और आप ने इस को और साधारण सा सुन्दर रूप दिया है उस का आप को धन्यवाद जी ....आज के परिपेक्ष्य मैं सब से सटीक बात लगी जी ....!!!!!!!!!!!!विनय जी ..आप की भाषा का मैं कायल हूँ...पुनः धन्यवाद
    Nirmal Paneri

    ReplyDelete
  2. विनय जी धन्यवाद ,,,,बहुत कुछ जो मुझसे छूट गया था यहाँ उसको फिर से पा लिया ,,,,सच में बहुत ही सटीक प्रहार
    प्रपंच-जाल, क्षरणशील भावनाएँ,
    जिनमें भरी थीं,
    सुखाकांक्षा को तृप्त करने की महती लालसाएँ,
    मेज पर प्रस्तुत थीं,
    भाँति-भाँति की सुस्वादु विविधताएँ

    स्नेह के तौर तरीकों से अनभिज्ञ,
    किन्तु शिष्टाचार के सुदर्शन आवरण में,
    कोरी भावनाओं का,
    कुशलता से आदान-प्रदान करनेवाले !

    बहुत ही सुन्दर
    सादर
    सुनीता

    ReplyDelete
  3. विनय जी धन्यवाद ,,,,बहुत कुछ जो मुझसे छूट गया था यहाँ उसको फिर से पा लिया ,,,,सच में बहुत ही सटीक प्रहार
    प्रपंच-जाल, क्षरणशील भावनाएँ,
    जिनमें भरी थीं,
    सुखाकांक्षा को तृप्त करने की महती लालसाएँ,
    मेज पर प्रस्तुत थीं,
    भाँति-भाँति की सुस्वादु विविधताएँ

    स्नेह के तौर तरीकों से अनभिज्ञ,
    किन्तु शिष्टाचार के सुदर्शन आवरण में,
    कोरी भावनाओं का,
    कुशलता से आदान-प्रदान करनेवाले !

    बहुत ही सुन्दर
    सादर
    सुनीता

    ReplyDelete
  4. सुनीताजी,
    मुझे उम्मीद है कि मंजुलाजी की रचना के इस
    अनुवाद से आपकी अपेक्षाएँ कुछ हद तक पूरी
    हो सकी होंगी, लेकिन फ़िर भी यदि आप इसमें
    कुछ कमी पाती हों तो बेहिचक इंगित करें !
    मुझे खुशी होगी । टिप्पणी के लिये धन्यवाद ।
    सादर,

    ReplyDelete
  5. मंजुला जी की कविता का कितनी सुन्दर रीति से आपने अनुवाद किया है .. मूल की तरह ही ख़ूबसूरत है ये अनुवाद . सभ्यता सच में प्याज के छिलके की तरह .. परत दर परत .. कई मुलम्मे ! विनय जी , सुन्दर अनुवाद के लिए बधाई. आपसे प्रार्थना है , इसे notes बना कर डाल दें ताकि और अधिक लोगों तक ये रचना पहुँच सके.
    सादर
    अपर्णा

    ReplyDelete
  6. अपर्णाजी,
    रचना को पढ़ने और टिप्पणी लिखने हेतु आभार !
    वास्तव में मन्जुलाजी की यह रचना मुझे बहुत
    अच्छी लगी । ’नोट्स’ में इसकी लिंक दे सकता
    हूँ । आप को उचित लगता हो और अगर आप
    भी इसे ’शेयर’ करें, तो मुझे खुशी होगी ।
    दीपावलि का यह पर्व आपको और आपके परिवार
    के लिये खुशियाँ लाए, ऐसी हार्दिक कामना है ।
    सादर,

    ReplyDelete
  7. जी अनुपमा !
    आपको अनुवाद पसंद आया,
    जानकर खुशी हुई ।
    सादर,

    ReplyDelete