~~~~~~~~~~~~~~~वज़ह~~~~~~~~~~~~~~~~~
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( प्रेरणा : 'फेसबुक' पर लिखे सुनीता 'सुनी' के स्टेटस से )
"हर दिन के साथ यूँ बढ़ रही हूँ, जैसे बबूल का पेड़ ............"
बबूल से मैंने पूछा,
"ये काँटे किसलिये ?"
हँसकर बोला वह,
"बकरियों से बचने के लिये ।"
"और पत्तियाँ किसलिये ?"
"बकरियों के लिये ।"
"!?"
"ताकि पत्तियाँ घटती रहें,
कटती रहें,
बढ़ती रहें,
और वे मुझे खाकर बिल्कुल ही ख़त्म न कर दें,
-इसलिये काँटों का होना भी उतना ही ज़रूरी है !"
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(सुनीताजी का कहना है कि वे बबूल नहीं,
'खजूर' लिखना चाहतीं थीं ,तो मुझे पुनः
एक नई प्रेरणा मिली,
प्रस्तुत है- )
फ़िर,
मैंने पास ही खड़े खजूर को देखा,
जो गर्व से सर उठाये,
बादलों से बतियाता जान पड़ता था,
और खजूर तुम ?
तुम्हारे बारे में तो किसी ने कहा ही है, :
"बड़ा हुआ तो क्या हुआ .....!!"
वह शायद ही मुझे सुन पाया हो .
जवाब बबूल ने ही दिया, :
"नहीं, उसका हृदय भी उतना ही उच्च है,
-जितना कि उसका कद ."
"कैसे ?"
"उसके हृदय में छिपे रस के झरने को,
उलीच लेते हैं आदिवासी मनुष्य,
और भोर होने से पहले तक उस अमृत
का पान किया जा सकता है,
उसे कहते हैं 'नीरा',
..................."
"लेकिन ताड़ी भी तो वही हो जाता है !"
-छेड़ा मैंने पुनः .
"हाँ, लेकिन मनुष्य ही तो उसे ,
सूरज की धूप दिखाकर,
बना देता है मादक ! ............"
खजूर तो अनुद्विग्न,
हवा में झूमता रहा ,
नहीं जानता उसने हमारी बातें,
सुनी या नहीं सुनी !!
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very nice thought............thanx
ReplyDeleteआशीषजी,
ReplyDeleteब्लॉग पढ़ने और टिप्पणी लिखने के लिये
हार्दिक धन्यवाद,
सादर,
गजब! कई बार पढ़ा फिर भी कुछ उपयुक्त टिपण्णी करने में अपने आपको असमर्थ पाया.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर संतुलित अभिव्यक्ति....
ReplyDelete@Honesty project democracy,
ReplyDeleteThanks Sir, for reading my post,
and writing your precious comment.
Warm Regards,
-vinay.
@ honesty project democracy,
ReplyDeleteप्रिय महोदय,
मेरी रचना को पढ़ने और अपनी टिप्पणी
देने के लिये आभार,
सादर,
प्रिय पी.एन. साहब,
ReplyDeleteआपकी यह टिप्पणी मेरे लिये अमूल्य उपहार है ।
आपने गहराई तक इसे अनुभव किया, यह मेरा सौभाग्य है ।
सादर,