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(facebook में
सुनिता ’सुनि’ के वक्तव्य
"स्कूल की घंटी बजते ही वह सारे काम छोड़ सड़क तक आ
जाता, सुबह की प्रार्थना कर रहे बच्चों को देख उसके मन में
टीस सी उठती, मालिक की डाँट सुन वो दौड़ा दौड़ा जाता,
और अपने काम में मशगूल हो जाता, स्कूल में प्रार्थना कर
रहे बच्चों की प्रार्थना में एक प्रश्न उसका भी होता था, :
’मेरे साथ ऐसा क्यों ?’
सच था,,,,
उसे *बंधुआ मजदूर *शब्द का पता जो नहीं था ...!")
के सन्दर्भ में
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एक ऐसी ज़िन्दगी जीना,
जिसका उसे पता भी नहीं होता,
इन्सान की,
कितनी बड़ी विडम्बना है !
ज़रूरी नहीं कि वह कोई,
ग़रीब मज़दूर का बेटा,
"बन्धुआ"-मज़दूर ही हो !
हो सकता है कि वह कोई बहुत
’सफल’ व्यक्ति हो,
जो ’सफलता’ के अर्थ से अनभिज्ञ हो,
और ’सफल होने’ के अनर्थ से भी ।
लेकिन यही तो होता है !
जिस चीज़ का हमें पता नहीं होता,
उसके बारे में हमें यह भी कहाँ पता होता है,
कि हम उससे अनभिज्ञ हैं ।
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"जिस चीज़ का हमें पता नहीं होता,
ReplyDeleteउसके बारे में हमें यह भी कहाँ पता होता है,
कि हम उससे अनभिज्ञ हैं ।"
बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ.
Ignorance is blissful कहा गया है
कुछ जानने के लिए सबसे पहले तो यही मानना होता है कि 'यह' मैं नहीं जानता.
ReplyDeleteपी.एन.साहब,
ReplyDeleteसचमुच, माता-पिता बच्चों के लिये कितने कष्ट झेलकर,
उन्हें पढ़ाते लिखाते हैं ।
क्या उन्हें पता होता है, कि आगे चलकर, बच्चे उनके
लिये कुछ करेंगे, या नहीं ....?
और फ़िर यह पता न होने का भी खयाल उनके मन में
कहाँ होता है ?
यह तो एक उदाहरण है,
वास्तव में ऐसे बहुत से उदाहरण हर किसी के जीवन में
होते हैं, जब वह अपने निर्णय पर पछताता है । क्योंकि
निर्णय लेते समय उसे कहाँ पता था कि,......
सादर,
जी राहुल जी,
ReplyDeleteपहले यही जानना ज़रूरी होता है, कि मैं नहीं जानता ।
उससे भी पहले, इन्सान इस बारे में भी कहाँ जानता है,
कि वह नहीं जानता ?
सादर,