November 18, 2010

जब जे.कृष्णमूर्ति ने स्वयं ही अपनी पुस्तक की समीक्षा की !

जब जे.कृष्णमूर्ति ने स्वयं ही अपनी पुस्तक की समीक्षा की !
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( कृष्णमूर्ति की 'नोटबुक' के प्रकाशन के संबंध में उनकी जीवनी
'कृष्णमूर्ति : द ईयर्स ऑफ़ फ़ुलफ़िलमेंट' में लिखते हुए मेरी ल्यूटेंस
कहती हैं ; 
   कृष्णजी ने अवश्य ही इस (पुस्तक) का अवलोकन किया होगा,
क्योंकि उन्होंने सोचा कि वे 'बस कौतूहलवश' इसकी समीक्षा करना
चाहेंगे ।
   उक्त समीक्षा का एक अंश प्रस्तुत है ।) 
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मुझे ऐसा लगता है, कि 'कृष्णमूर्ति की नोटबुक' नामक यह पुस्तक
उपनिषदों तथा वेदान्त से भी परे निकल गयी है । जब वे ज्ञान और
ज्ञान के अंत की बात करते हैं, तो यही तो अक्षरशः वेदान्त है, और  
जिसका शाब्दिक अर्थ भी बिलकुल यही होता है;-'ज्ञान का पर्यवसान'
जबकि, विश्व भर के विभिन्न भागों में, वेदांती और उनके अनुयायी, 
वस्तुतः ज्ञान के ढाँचे को सुरक्षित रखने की ही चेष्टा में संलग्न हैं, 
शायद वे ऐसा सोचते होंगे कि ज्ञान ही स्वतन्त्रता है, जैसा अधिकाँश
वैज्ञानिक भी महसूस किया करते हैं ।
मन परम्परा के दृढ बंधन में इतनी बुरी तरह से जकड़ जाया करता
है, कि कोई बिरला ही इस पकड़ से छूट पाता है, और मुझे लगता है
कि कृष्णमूर्ति की बात यहीं से शुरू होती है । वे इस बात पर निरंतर
बल देते हैं, कि स्वतन्त्रता ही पहला और अंतिम कदम है । जबकि
परम्परा के पक्षधर इस पर जोर देते हैं, कि स्वतन्त्रता के लिए मन 
का अत्यंत अनुशासित होना ज़रूरी है, : 
"पहले दासता स्वीकारो, फ़िर तुम स्वतंत्र हो सकोगे."
कृष्णमूर्ति की दृष्टि में, जो बात सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, तथा जिसे
अपने सभी संभाषणों और संवादों में जिसे वे दोहराते हैं, वह यह है,
कि अवलोकन कर सकने के लिए स्वतन्त्रता होना आवश्यक है, और 
ऐसी स्वतन्त्रता सिर्फ सैद्धांतिक नहीं होती, बल्कि यह उस ज्ञान और 
अनुभव-मात्र से भी मुक्ति है, जिसे कल, अतीत में एकत्र किया गया 
था । यहाँ हमारा सामना एक विकट प्रश्न से होता है,:यदि अतीत का,
बीते हुए सारे 'कलों' का ज्ञान अनुपस्थित है, तो 'वह' क्या है, जिसके
पास अवलोकन करने की क्षमता होती है ? यदि अवलोकन के लिए
ज्ञान को सहारे की तरह से नहीं प्रयुक्त नहीं किया जा सकता,तो फ़िर
आपमें ऐसा 'क्या' है, जिसके जरिये अवलोकन संभव होता हो ? यदि
उन सारे विगत 'कलों' को विस्मृत कर देना ही स्वतन्त्रता का मौलिक
तत्व है, तो क्या उन्हें विस्मृत किया भी जा सकता है ? वे मानते हैं,
हाँ, यह संभव है । और सिर्फ़ तभी संभव है जब अतीत की समाप्ति
वर्तमान में होती हो, जब अतीत समग्र रूप से, प्रत्यक्षतः वर्तमान में
समा जाता हो । जैसा कि वे निश्चयपूर्वक कहते हैं, अतीत ही अहंकार
है, यही ’मैं’ का वह ढाँचा है, जो समग्र अवलोकन में बाधक होता है ।
   इस पुस्तक को पढ़नेवाला एक सामान्य पाठक अवश्य ही चीत्कार
कर उठेगा, वह कहेगा, :
 ’आप किस बारे में कह रहे हैं ?’
कृष्णमूर्ति अत्यन्त सावधानीपूर्वक, अनेक तरीकों से उसके लिये यह
स्पष्ट करते हैं कि व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से आवश्यक स्मृति,
एवं मनोगत स्मृति के बीच क्या फ़र्क होता है । हमारे नित्य-प्रति के
जीवन के हर क्षेत्र में व्यवहार करने के लिये ज्ञान तो आवश्यक है, 
परन्तु हमारे मानसिक आघातों, उद्वेगों, पीड़ाओं और दुःखों की मनोगत
स्मृति, मन के विखंडन का कारण हुआ करती है, और इसके फलस्वरूप
आवश्यकता की दृष्टि से उपयोगी ज्ञान, जैसे कि कार चलाने का ज्ञान 
आदि, और ज्ञान के अनुभव अर्थात्‌ अन्तःकरण की समग्र गतिविधि, 
इन दोनों के बीच विसंगति पैदा हो जाती है । हमारे संबंधों में, जीने के
हमारे तौर-तरीकों में पाए जानेवाले इस तथ्य की ओर वे हमारा ध्यान 
आकर्षित करते हैं । मैंने इस पुस्तक को बहुत ध्यानपूर्वक पढ़ा है । 
मैंने उपनिषदों को भी बहुत ध्यान देकर पढ़ा है, और बुद्ध की शिक्षाओं
का भी गहन अध्ययन किया है । मनोविज्ञान के क्षेत्र में आधुनिक समय
में जो अध्ययन किए जा रहे हैं, उनसे भी मैं भली-भाँति परिचित हूँ ।
अब तक मैंने कहीं भी,जितना भी कुछ पढ़ा है, उसमें अपने यह उक्ति,

दृष्टा ही दृष्ट है, *(the observer is the observed)'

-अपने संपूर्ण आशय-सहित कहीं भी दृष्टिगत न हुई । अवलोकनकर्ता 
स्वयं ही ’वह’ है, जिसका कि अवलोकन किया जा रहा है ।
  शायद किन्हीं प्राचीन चिंतकों ने ऐसा कहा हो, किन्तु कृष्णमूर्ति के
द्वारा खोजी गई सर्वाधिक महत्वपूर्ण बातों में से यह, एक महान सत्य
है -और जब यह (किसी के साथ) वस्तुतः घटित होता है, जैसा कि 
अनेक अवसरों पर व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ घटा है, तो यह काल 
की गतिविधि का अक्षरशः निवारण कर देता है । मैं यहाँ पर यह भी
कहना चाहूँगा कि मैं न तो उनका अनुयायी हूँ, और न कृष्णमूर्ति को
अपने गुरु के रूप में स्वीकारता हूँ । उनकी दृष्टि में, गुरु का स्थान 
ग्रहण करना सर्वाधिक अशोभनीय कार्य है । इसे आलोचना की दृष्टि से
परखने के बाद मुझे महसूस होता है कि यह ऐसी अत्यन्त ही रोचक
पुस्तक है, जिसे पढ़ते हुए पाठक इसमें पूरी तरह तल्लीन हो जाता है,
क्योंकि वे उस हर-एक वस्तु को मिटा डालते हैं, जिसे ’विचार’ ने रचा
है । और जब यह पता चलता है, तो एक गहरा धक्का लगता है ।
एक यथार्थ, वास्तविक आघात होता है यह !
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*An Excerpt :
[The concept I found most difficult to understand was
that of 
'the observer is the observed'.
 I finally came to an interpretation of this : the self
looks at all its inner states of being with its own 
conditioned mind and therefore what it sees is a replica
of itself; what we are is what we see. The conception of 
a superior self which can direct one's other selves is an 
illusion, for there is only one self. When K said in other 
talks;
'The experiencer is the experienced'
and,
'The thinker is the thought',
he was merely using different words to express the same
idea.
   -from 'Life and Death of J.Krishnamurti'
-Mary Lutyens,ch.14,(1967),-"Ideals are brutal things" ]
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'The observer is the observed'
’दृष्टा स्वयं ही दृष्ट है ।’
"अवलोकनकर्ता स्वयं ही ’वह’ है, जिसका कि अवलोकन किया जा 
रहा है" -
इस अवधारणा को समझ पाना मुझे सर्वाधिक कठिन प्रतीत हुआ । 
अन्ततः मुझे इसकी यह व्याख्या सन्तोषजनक लगी :
  अस्मिता (स्व, अहं) अपनी सत्ता की समस्त आन्तरिक अवस्थाओं 
को अपने संस्कारित मन के माध्यम से देखती है, अतएव यह जो 
कुछ भी देखती है, वह सब इसका अपना ही प्रतिरूप होता है, -हम
वही होते हैं, जो कि हम देखते हैं । ऐसी किसी महत्तर अस्मिता की
संकल्पना, जो हमारी अन्य सारी अस्मिताओं को दिशा-निर्देश दे सके,
मात्र भ्रम है, क्योंकि सच केवल एक है । अपनी अन्य कुछ वार्ताओं 
में जब कृष्णजी ने 
’अनुभवकर्ता ही अनुभवित है’,
और 
’विचारकर्ता ही विचार है’ 
कहा, तो वे उसी वक्तव्य की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न शब्दों में कर 
रहे थे ।
(’लाइफ़ ऎंड डेथ ऑफ़ कृष्णमूर्ति’,
-मैरी ल्युटियन्स द्वारा लिखित जे.कृष्णमूर्ति की जीवनी, अध्याय १४,
ऑयडियल्स आर ब्रूटल थिंग्स)   

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4 comments:

  1. विनय जी ...सबसे पहले तो आप का धन्यवाद की इतने शसक्त विचार में मुझे भी पड़ने का मोका दिया जे.कृष्णमूर्ति
    जी के.....खेर ...इनके लेखान से में आपनी सहमती भी साथ साथ देता हूँ की उन्होंने बिलकुल जमीनी सत्य बात बोली है और बिलकुल सार्थक भी की "पहले दासता स्वीकारो, फ़िर तुम स्वतंत्र हो सकोगे.
    और आज के परिपेक्ष्य में दूसरी बात अहं (मैं )इसका सही मायनो मैं विवाचन किया है ..
    जब अतीत की समाप्ति
    वर्तमान में होती हो, जब अतीत समग्र रूप से, प्रत्यक्षतः वर्तमान में
    समा जाता हो ।
    .""अतीत ही अहंकार
    है, यही ’मैं’ का वह ढाँचा है, जो समग्र अवलोकन में बाधक होता है"""कुल मिलाकर पुरे नोट मैं जो आप ने लिखा है उसका शारांश मुझे ये लगा पर कई दरवाजे और भी खोल गे है मुझे सोचने को जेसे अवलोकनकर्ता
    स्वयं ही ’वह’ है, जिसका कि अवलोकन किया जा रहा है आदि आदि ....पर अंत मैं आप का (स्व, अहं)पैर भी विचार कुछ मुझे अच्छा लगा .....धन्यवाद जी

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  2. प्रिय महोदय,
    आप जानते हैं कि मैं फ़ेसबुक पर श्री रमण महर्षि
    की वाणी प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
    श्री जे.कृष्णमूर्तिजी शायद इस ओर संकेत करते
    हैं कि ’सत्य’ को इंगित नहीं किया जा सकता,
    हाँ, असत्य का अवलोकन ज़रूर किया जा सकता है,
    और चूँकि वह वस्तुतः ’होता’ ही नहीं, इसलिये, उसके
    अवलोकन-मात्र से ही उसका निराकरण हो जाता है ।
    वहीं श्री रमण महर्षि हमें अनायास उपलब्ध दो सरल से
    ’तथ्यों’ की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं,
    वे हैं : हमारा ’होना’ तथा हमारी ’चेतनता’ ।
    इन दो सरल स्वभाविक तथ्यों की जागरूकता ही पर्याप्त है,
    ’सत्य’ के आविष्कार के लिये ।
    मेरे अपने विचार मे, दोनों की शिक्षाओं के ’प्रयोजन’ में
    रंचमात्र भी अंतर नहीं है । हाँ, शैली में काफ़ी फ़र्क दिखाई
    देता है । और उसके पीछे बहुत से कारण हैं,.....
    सादर,
    Thanks for your kind visit, and posting your precious comment,
    Regards,

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  3. विनय जी में कृष्णमूर्ति जी तो नहीं पढ़ पाए हूँ अब तक ,, आप के माध्यम से उन्हें पढ़ने का मौका मिला उसके लिय धन्यवाद ,,,
    सत्य है कि स्वतंत्रता के लिय मन का अनुशासित होना आवश्यक है ,, जब आप मैं के भार से मुक्त होंगे तो ही आप सही मायनों मैं स्वतंत्र है ,, चाहे हम किसी दूसरे के विचारों या व्यवहार का अवलोकन कर रहे हों असल मैं हम अपने ही विचारों एवं व्यवहार का अवलोकन कर रहे होते हैं

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