~~~~कविता "॥नाग लोक॥" की रचना-प्रक्रिया ~~~
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कल ही मैंने उपरोक्त कविता लिखी थी ।
उस समय मुझे इस बात की कल्पना तक नहीं थी,कि मैं क्या लिखने
जा रहा हूँ ।यह अवचेतन का प्रस्फुटन था, जिसे मैं काग़ज पर रास्ता
दे रहा था । बस, वैसे ही जैसे ’अवचेतन’ के प्रस्फुटीकरण के लिये
कभी-कभी मैं एक प्रयोग किया करता हूँ ।
मैं पहले कागज रंग, और तूलिका लेकर शान्तिपूर्वक बैठ जाता हूँ, फ़िर
कुछ पल ठहरकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ाता हूँ, फ़िर दृष्टि को रंगों और
कागज पर वापस ले आता हूँ, अन्यमनस्क सी स्थिति में जब ’विचार’
निष्क्रिय सा पड़ा होता है, मैं एक तूलिका उठा लेता हूँ, या कभी-कभी
कोई पेन्सिल । फ़िर कागज पर उसे इधर-उधर गति देता हूँ । ज़ाहिर
है, तब ’विचार’ अर्थात् मेरा ’चेतन’ मन चुप होता है । निरुद्देश्य हो
रही इस प्रक्रिया में, अवचेतन धीरे-धीरे खुलने लगता है । मैं उसकी
कोई व्याख्या नहीं करता ।
"मैं" कौन ?
-मेरा चुप पडा़ ’चेतन’ मन ।
मैं / वह कागज पर उभरती आकृति पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं करते ।
उन्हें इसकी अनुमति भी नहीं होती । कुछ समय तक इस गतिविधि में
संलग्न रहते हुए, या तो जीवन की दूसरी ज़रूरतें मुझे इससे दूर कर देती
हैं, या अनचाहे ही यह प्रक्रिया जैसे शुरू हुई थी, वैसे ही रुक भी जाती है ।
तब, या तो ’चेतन’ मन की ही भाँति, ’अवचेतन’ मन भी ’ठहर’ जाता है,
या फ़िर ’चेतन’ अपने क्रिया-कलाप शुरु कर देता है ।
तब, मैं कागज-पेन्सिल, रंग-तूलिका एक ओर रख देता हूँ, और विरले ही
अवसर पर कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है, कि ’चेतन’ और ’अवचेतन’,
दोनों ही चुप होते हैं, और मैं ’सोया’ भी नहीं होता । मुझे मेरे आसपास
के संसार और उसकी गतिविधियों का शुद्ध इन्द्रिय-गम्य बोध, ’भान’ तो
रहता है, और ’चेतन’ मन किसी भी क्षण ज़रूरत होते ही काम में जुट भी
सकता है, किंतु मैं उस शान्ति में, ’चेतन’ और ’अवचेतन’ से भी परे के
किसी तत्त्व को ’प्रस्फुटित’ होते देखने लगता हूँ ।
"मैं" कौन ?
-मेरा अवधान, ’अटेन्शन’।
क्या ’अवधान’ को ’चित्त’ कहना ठीक होगा ?
-नहीं, क्योंकि ’चित्त’ कभी ’अवधानयुक्त’ अर्थात् ’सावधान’ होता है,
और कभी-कभी नहीं भी होता ।(हालाँकि, ’अवधान’ को ’मेरा’ कहना भी त्रुटिपूर्ण है ।)
’मन’ की उस अवस्था में यदि मैं आँखे बंद कर लेता हूँ, तो या तो नींद
मे चला जाता हूँ, या स्वप्न जैसी ’तंद्रा’ में, जिसमें मैं सारे संसार से
एक हो जाता हूँ । लेकिन ज़रा ठहरिये । तब संसार से मैं इस दृष्टि से
एक हो जाता हूँ कि अपने को किसी वस्तु, व्यक्ति, प्राणी, या पेड़-पौधे
जैसा पाता हूँ । इस क्षण इसकी कल्पना नहीं कि जा सकती कि तब
मैं ’क्या’ होता हूँ ! क्योंकि इस क्षण तो ’चेतन’ ही कार्यरत है । और
उस बहुत बड़े ’अंतराल’ को, जिसे मैं ’अचेतन’ कहना चाहूँगा, यदि
मैं पार कर सकता हूँ, तो एक और नया तत्त्व ’अवधान’ के आलोक में
प्रकट होता है । इस सब बारे में फिर कभी विस्तार से ।
अभी तो यही कहूँगा कि इसी तरह की मनःस्थिति में यह रचना, यह
कविता, कम्प्यूटर के मॉनीटर पर उभरी थी ।-एक शब्द-चित्र की भाँति ।
यह ’अज्ञात’ से आई थी ।
(क्या इसे हम 'ईश्वर' कह सकते हैं ?)
फ़िर मैंने इस पर चिंतन किया, और पाया कि ’नाग’ शब्द वस्तुतः
’विचार’,’सूचना’, ’इन्फ़ॉर्मेशन’ के लिये प्रयुक्त किया गया है । यहाँ
तैत्तिरीय उपनिषद् की शिक्षा-वल्ली और श्री जे.कृष्णमूर्ति की वाणी के
संदर्भ में अब मैं इस रचना और इसकी ’कुंजी’ क्या है, इस बारे में इस
लेख के अगले हिस्से में प्रकाश डालूँगा ।
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जी ...हमेशां की तरह ..अच्छी प्रक्रिया आप की .....आगे का भी इंतजार ...इस में मुझे आप की ये प्रक्रिया आच्छी लगी की ....."मैं" कौन ?
ReplyDelete-मेरा चुप पडा़ ’चेतन’ मन...................या ..."मैं" कौन ?
-मेरा अवधान, ’अटेन्शन’।
क्या ’अवधान’ को ’चित्त’ कहना ठीक होगा ?
-नहीं, क्योंकि ’चित्त’ कभी ’अवधानयुक्त’ अर्थात् ’सावधान’ होता है,
और कभी-कभी नहीं भी होता ।.......................................................और आप ने लिखा है की ये कविता यह ’अज्ञात’ से आई थी .......ऐसी बातें चेतन मन और अवधान ....के बेच में से निकल आती है शायद ....बहुत सुन्दर आप की व्याख्या जी
निर्मलजी,
ReplyDeleteयह वैसे तो आत्म-विचार की प्राचीनतम,
वेदोक्त प्रक्रिया का ही नया रूप है, लेकिन
दर्शन-शास्त्र और वैदिक-भाषा, मनोविज्ञान
की भूलभुलैया से बचते-बचाते हुए मैं इसे
सरल भाषा में लिखना चाहता था । इसे
मैं ’बहस’ से भी बचाना चाहता हूँ, क्योंकि
कोरी बहस, या सैद्धान्तिक बहस भी ’बुद्धि’
अर्थात् हमारे ’चेतन’ मन की सीमाओं में
सीमित होती है ।
’सत्य’ सारी सीमाओं से परे भी है ।.....
वास्तव में इस बहाने मैं एक ओर जहाँ
अपने-आपको जानने-समझने का यत्न कर
रहा हूँ, वहीं इस सब को इसमें रुचि रखने
वाले मित्रों तक भी पहुँचाना चाहता हूँ ।
आपको अच्छा लगा, यह मेरा सौभाग्य है,
सादर,