ठहरा हुआ पानी
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बामियान की पहाड़ियों में किसी समय अनेक बौद्ध विहार थे।
मूर्तिपूजकों ने भगवान बुद्ध की कुछ प्रतिमाएँ उन विहारों के समीप स्थापित कर रखीं थीं।
उस काल में भी वहाँ की जलवायु वैसी ही थी जैसी आज है। अति शीत, अति आतप और अति वर्षा।
यद्यपि कुछ भिक्षु उस वातावरण में अधिक समय तक जीवित न रह पाते थे, लेकिन वहाँ रहनेवाले कुछ भिक्षुओं के शरीर जलवायु-सह्य (acclimatized) हो जाते थे।
त्यक्तजीवित उन विवेक-वैराग्य-संपन्न भिक्षुओं के जीवन में यदि कुछ था तो वह थी प्रतीक्षा।
ऐसे ही किसी समय भिक्षु अमितगुप्त उन बौद्ध प्रतिमाओं की पूजा किया करते थे जिन्हें भविष्य कभी किन्हीं मूर्तिभंजकों द्वारा तोप के गोलों से तोड़ दिया जाना था।
यह जानते हुए भी कि पृथ्वी के किसी सुदूर भविष्य में ऐसा होनेवाला है, बुद्ध के प्रति उनकी अविचलित निष्ठा को देखकर उनके एक शिष्य ने प्रश्न किया :
"भन्ते। जब आपको यह अच्छी तरह विदित है कि ये प्रतिमाएँ किसी दिन तोड़ दी जानेवाली हैं तो फिर आप इस निष्ठापूर्वक उनकी पूजा कैसे कर पाते हैं ?"
तब अमितगुप्त ने कहा :
"तुम्हें याद है जब तुम प्रथम बार यहाँ आए थे, और मैंने तुमसे सामने की नदी से पीने के लिए जल लाने के लिए कहा था ?"
"हाँ, याद है।"
"तब तुम बिना जल लिए वापस आ गए थे और मुझसे तुमने कहा था कि अभी अभी वहाँ से पशुओं का एक झुण्ड पानी पीकर गुज़रा है इसलिए पानी गंदला और मैला हो गया है। तब आपने मुझसे और थोड़ी देर बाद पुनः वहाँ जाने और बहते हुए पानी के स्थिर होकर निर्मल हो जाने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा था।"
"क्या फिर पानी पुनः स्वच्छ नहीं हुआ था ?"
"हाँ भन्ते !"
"यह क्रम ऐसा ही है। जगत नित्य मलिन और शुद्ध होता रहता है।
ये प्रतिमाएँ तोड़ दिए जाने के बाद पुनः निर्मित होंगी।
इन प्रतिमाओं को अपने बनने-टूटने का भान नहीं है, क्योंकि वे उस बुद्ध-चेतना में भली प्रकार से अवस्थित और प्रतिष्ठित हैं जिसका बनने-टूटने से कोई लेना-देना नहीं है।
राष्ट्र और सनातन-धर्म वही बुद्ध-चेतना है जो संसार-धर्म से; जगदधर्म से नितान्त अछूती है।
इसलिए अन्याय और दुष्टता का प्रतिरोध मत करो, प्रतिशोध अवश्य करो !"
"प्रतिशोध ?"
"हाँ, प्रतिशोध का अर्थ है कि
'नित्य क्या है और अनित्य क्या है';
- इस बारे में निरन्तर शोध, सतत अनुसन्धान करते रहना,
तब तुम्हारे सामने बुद्ध-चेतना का सत्य प्रकट और स्पष्ट होगा।"
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बामियान की पहाड़ियों में किसी समय अनेक बौद्ध विहार थे।
मूर्तिपूजकों ने भगवान बुद्ध की कुछ प्रतिमाएँ उन विहारों के समीप स्थापित कर रखीं थीं।
उस काल में भी वहाँ की जलवायु वैसी ही थी जैसी आज है। अति शीत, अति आतप और अति वर्षा।
यद्यपि कुछ भिक्षु उस वातावरण में अधिक समय तक जीवित न रह पाते थे, लेकिन वहाँ रहनेवाले कुछ भिक्षुओं के शरीर जलवायु-सह्य (acclimatized) हो जाते थे।
त्यक्तजीवित उन विवेक-वैराग्य-संपन्न भिक्षुओं के जीवन में यदि कुछ था तो वह थी प्रतीक्षा।
ऐसे ही किसी समय भिक्षु अमितगुप्त उन बौद्ध प्रतिमाओं की पूजा किया करते थे जिन्हें भविष्य कभी किन्हीं मूर्तिभंजकों द्वारा तोप के गोलों से तोड़ दिया जाना था।
यह जानते हुए भी कि पृथ्वी के किसी सुदूर भविष्य में ऐसा होनेवाला है, बुद्ध के प्रति उनकी अविचलित निष्ठा को देखकर उनके एक शिष्य ने प्रश्न किया :
"भन्ते। जब आपको यह अच्छी तरह विदित है कि ये प्रतिमाएँ किसी दिन तोड़ दी जानेवाली हैं तो फिर आप इस निष्ठापूर्वक उनकी पूजा कैसे कर पाते हैं ?"
तब अमितगुप्त ने कहा :
"तुम्हें याद है जब तुम प्रथम बार यहाँ आए थे, और मैंने तुमसे सामने की नदी से पीने के लिए जल लाने के लिए कहा था ?"
"हाँ, याद है।"
"तब तुम बिना जल लिए वापस आ गए थे और मुझसे तुमने कहा था कि अभी अभी वहाँ से पशुओं का एक झुण्ड पानी पीकर गुज़रा है इसलिए पानी गंदला और मैला हो गया है। तब आपने मुझसे और थोड़ी देर बाद पुनः वहाँ जाने और बहते हुए पानी के स्थिर होकर निर्मल हो जाने तक प्रतीक्षा करने के लिए कहा था।"
"क्या फिर पानी पुनः स्वच्छ नहीं हुआ था ?"
"हाँ भन्ते !"
"यह क्रम ऐसा ही है। जगत नित्य मलिन और शुद्ध होता रहता है।
ये प्रतिमाएँ तोड़ दिए जाने के बाद पुनः निर्मित होंगी।
इन प्रतिमाओं को अपने बनने-टूटने का भान नहीं है, क्योंकि वे उस बुद्ध-चेतना में भली प्रकार से अवस्थित और प्रतिष्ठित हैं जिसका बनने-टूटने से कोई लेना-देना नहीं है।
राष्ट्र और सनातन-धर्म वही बुद्ध-चेतना है जो संसार-धर्म से; जगदधर्म से नितान्त अछूती है।
इसलिए अन्याय और दुष्टता का प्रतिरोध मत करो, प्रतिशोध अवश्य करो !"
"प्रतिशोध ?"
"हाँ, प्रतिशोध का अर्थ है कि
'नित्य क्या है और अनित्य क्या है';
- इस बारे में निरन्तर शोध, सतत अनुसन्धान करते रहना,
तब तुम्हारे सामने बुद्ध-चेतना का सत्य प्रकट और स्पष्ट होगा।"
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