December 27, 2019

विषवृक्ष

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय
विषवृक्ष
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संयोगवश भारत राष्ट्र के दोनों राष्ट्रगीत बांग्ला साहित्यकारों की लेखनी से लिखे गए हैं।
18 दिसंबर 2019 को नख-शल-वाद शीर्षक से एक छोटा पोस्ट लिखा, तो ख़याल आया कि किस प्रकार सूर्य-ग्रहण के समय चन्द्रमा सूरज को ढँक लेता है।
कुछ ऐसा ही लगता है अगर दोनों राष्ट्रगीतों के इन दोनों रचनाकारों के व्यक्तित्व की तुलना की जाए।
शायद रवीन्द्रनाथ टैगोर ने इसी प्रकार बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रभामंडल को ढँक लिया था।
और भारत के राष्ट्रगान के लिए 'जन-गण-मन' का चयन कर लिया गया।
साहित्यिक प्रतिभा की दृष्टि से बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय रवीन्द्रनाथ टैगोर से उन्नीस नहीं थे, किन्तु अपने राजनैतिक विचारों और आचरण के कारण उन्हें वह स्थान नहीं दिया गया जो दिया जाना चाहिए था।
उन्हें नोबेल-पुरस्कार दिए जाने का तो इसीलिए सवाल ही नहीं उठता था।
रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार दिए जाने के पीछे और भी कुछ कारण हो सकते हैं किन्तु अनेक ऐसे और भी महान भारतीय लेखक / साहित्यकार हैं जो उनके समान ही प्रतिभावान थे यद्यपि उन्हें इस पुरस्कार के लिए प्रस्तावित तक नहीं किया गया। शायद यह संयोग ही है।    
रवीन्द्रनाथ ने जो राष्ट्रगीत लिखा था उसके मुख्य प्रयोजन के बारे में हमेशा विवाद रहा है, और नख-शल-वादी विषवृक्ष की जड़ों से पोषित होनेवाली उसकी शाखाएँ आज भी इसका सम्मान करने में स्वयं को अपमानित अनुभव करती है।
फिर 'वन्दे-मातरम्' भी उनके लिए इतना ही, या शायद इससे भी अधिक अस्वीकार्य है।
शायद यह विवाद का विषय नहीं है कि रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखे गए राष्ट्रगीत के मूल में उनका क्या प्रयोजन था, और इस गीत का चयन राष्ट्रगीत / राष्ट्रगान के लिए किया जाना कितना उचित था। किन्तु   
'वन्दे-मातरम्' के साथ साथ 'जन-गण-मन' को भी विवादास्पद बना दिया जाना अवश्य ही चिंता का विषय है।
जब तक नख-शल-वाद के इस विषवृक्ष का समूल उच्छेदन नहीं कर दिया जाता, भारत को सतत संघर्ष करते रहना होगा।
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'वन्दे-मातरम्' या 'बन्दे-मातरम्' की रचना सन् 1870 के आसपास हुई थी, 'जबकि जन-गण-मन' का प्रथम बार सन् 1911 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अधिवेशन में पाठ किया गया था।
एक प्रश्न यह भी उठाया जा सकता है कि क्या गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को इसकी प्रेरणा 'वन्दे-मातरम्' से मिली होगी?     

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