कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -25
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16 मार्च 2014 के आसपास यह श्रंखला शुरू हुई थी। ध्वंस तो सृजन की सहयोगी गतिविधि है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति इस तारीख के बाद अधिक प्रखर हो उठी है। ट्विटर पर एक नए फॉलोवर बने हैं। पता नहीं क्या अपेक्षा मुझसे होगी उन्हें ! बहरहाल उनका पेज देखा तो ऐसा लगा कि वे 'राष्ट्रवाद' के प्रबल समर्थक और सेकुलरिज्म के उतने ही प्रबल विरोधी होंगे।
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पिछले साल भर कई बार इन दोनों शब्दों पर चिंतन करता रहा। गीता पर ब्लॉग्स लिखते समय भारत पर भी बहुत बार सोचा। अध्याय 3 का श्लोक 38 जब भी पढ़ता हूँ, जे. कृष्णमूर्ति याद आते हैं !
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'धूमेनाव्रियते वह्निः यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।'
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संस्कृत में 'आदर्श' का मतलब होता है आईना। आदर्श पर हमेशा विचार की धूल चढ़ जाती है । आदर्श वस्तुतः निर्मल होता है। इतना निर्मल कि दिखलाई तक नहीं देता। फिर किसी दूसरे को उस आदर्श को दिखलाना तो लगभग असंभव ही होता है। और जब भी विचार के माध्यम से उस आदर्श की ओर इशारा भी किया जाता है , तो विचार की धूल उस पर लग जाती है, उसे कलंकित भी कर देती है। हाँ यह हो सकता है कि इस धूल को सावधानी से साफ़ कर दिया जाए। राष्ट्रवाद का आदर्श भी इसका अपवाद नहीं है। राष्ट्रवाद का प्रचलित अर्थ है, अपने देश को श्रेष्ठ मानना उसके प्रति गौरव अनुभव करना। किन्तु देश क्या है? स्वाभाविक है कि इसका तात्पर्य भूमि समझा जाए। अर्थात् 'जन्मभूमि' । इस दृष्टि से देखें तो अपने देश से बाहर जन्म लेने वाले जिनके माता-पिता इस देश के नागरिक हैं, क्या इस देश को अपना न कहें? स्पष्ट है कि देश न सिर्फ भौगोलिक बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक, सामाजिक और भाषाई इकाई भी है। और एक सच्चाई भी है।
वैदिक रूप से 'राष्ट्र' का तात्पर्य है संपूर्ण भूमि अर्थात पृथ्वी। वैदिक दृष्टि से इस भूमि की अपनी चेतन सत्ता है। देवी अथर्वण में देवी अपने बारे में कहती है :
'अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् .. …'
दूसरी ओर राज्य एक और इकाई है, जिसकी भौगोलिक सीमाएँ समय के साथ बदलती रहती हैं। किन्तु जहाँ साँस्कृतिक सीमाएँ समय के बदलने के साथ नहीं बदलतीं ऐसी एक और इकाई होती है जिसके आधार पर किसी समुदाय के 'देश' का अस्तित्व परिभाषित होता है। स्पष्ट है कि एक ही 'देश' में अनेक भाषाई समुदाय हो सकते हैं, जिनकी साँस्कृतिक पहचान तक समान हो।
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आज 18 सितम्बर 2014 को सुबह समाचारों में सुना की स्कॉटलैंड में इस बारे में रेफरेंडम हो रहा है कि क्या
वह भौगोलिक क्षेत्र यू.के. में रहेगा या कि उससे अलग एक स्वतंत्र 'राष्ट्र' होगा?
तिब्बत के बारे में भारत की केंद्रीय सरकार की ढुलमुल नीति, कश्मीर के बारे में श्री जवाहरलाल नेहरू की इरादतन या गैर इरादतन भूल का ख़ामियाज़ा हम झेल रहे हैं। इस बारे में हमारी उदासीनता ही हमारे और संसार के विनाश का कारण है। यह ठीक है कि संसार की गति को कोई न तो दिशा दे सकता है, न कम या अधिक कर सकता है। बाँग्लादेश का जन्म इसका स्पष्ट प्रमाण है। चीन या दूसरी विस्तारवादी शक्तियाँ कितनी ही कोशिश कर लें, संसार के नक़्शे में राई-रत्ती का फ़र्क नहीं ला सकती। लेकिन यदि उन शक्तियों को इसका विश्वास है कि वे ऐसा कर सकती हैं तो यह उनकी ग़लतफ़हमी है।
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इस पोस्ट को यहीं पूर्ण करना चाहूँगा। अभी काफी कुछ लिखना है, 'हिंदी' / 'हिन्दू' / 'भारत' / 'इण्डिया' / 'इंडिया' / 'इन्डिया' के बारे में। वह सब अगली पोस्ट्स में।
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16 मार्च 2014 के आसपास यह श्रंखला शुरू हुई थी। ध्वंस तो सृजन की सहयोगी गतिविधि है। लेकिन उसकी अभिव्यक्ति इस तारीख के बाद अधिक प्रखर हो उठी है। ट्विटर पर एक नए फॉलोवर बने हैं। पता नहीं क्या अपेक्षा मुझसे होगी उन्हें ! बहरहाल उनका पेज देखा तो ऐसा लगा कि वे 'राष्ट्रवाद' के प्रबल समर्थक और सेकुलरिज्म के उतने ही प्रबल विरोधी होंगे।
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पिछले साल भर कई बार इन दोनों शब्दों पर चिंतन करता रहा। गीता पर ब्लॉग्स लिखते समय भारत पर भी बहुत बार सोचा। अध्याय 3 का श्लोक 38 जब भी पढ़ता हूँ, जे. कृष्णमूर्ति याद आते हैं !
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'धूमेनाव्रियते वह्निः यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्।।'
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संस्कृत में 'आदर्श' का मतलब होता है आईना। आदर्श पर हमेशा विचार की धूल चढ़ जाती है । आदर्श वस्तुतः निर्मल होता है। इतना निर्मल कि दिखलाई तक नहीं देता। फिर किसी दूसरे को उस आदर्श को दिखलाना तो लगभग असंभव ही होता है। और जब भी विचार के माध्यम से उस आदर्श की ओर इशारा भी किया जाता है , तो विचार की धूल उस पर लग जाती है, उसे कलंकित भी कर देती है। हाँ यह हो सकता है कि इस धूल को सावधानी से साफ़ कर दिया जाए। राष्ट्रवाद का आदर्श भी इसका अपवाद नहीं है। राष्ट्रवाद का प्रचलित अर्थ है, अपने देश को श्रेष्ठ मानना उसके प्रति गौरव अनुभव करना। किन्तु देश क्या है? स्वाभाविक है कि इसका तात्पर्य भूमि समझा जाए। अर्थात् 'जन्मभूमि' । इस दृष्टि से देखें तो अपने देश से बाहर जन्म लेने वाले जिनके माता-पिता इस देश के नागरिक हैं, क्या इस देश को अपना न कहें? स्पष्ट है कि देश न सिर्फ भौगोलिक बल्कि ऐतिहासिक, सामाजिक, सामाजिक और भाषाई इकाई भी है। और एक सच्चाई भी है।
वैदिक रूप से 'राष्ट्र' का तात्पर्य है संपूर्ण भूमि अर्थात पृथ्वी। वैदिक दृष्टि से इस भूमि की अपनी चेतन सत्ता है। देवी अथर्वण में देवी अपने बारे में कहती है :
'अहं राष्ट्री संगमनी वसूनाम् चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् .. …'
दूसरी ओर राज्य एक और इकाई है, जिसकी भौगोलिक सीमाएँ समय के साथ बदलती रहती हैं। किन्तु जहाँ साँस्कृतिक सीमाएँ समय के बदलने के साथ नहीं बदलतीं ऐसी एक और इकाई होती है जिसके आधार पर किसी समुदाय के 'देश' का अस्तित्व परिभाषित होता है। स्पष्ट है कि एक ही 'देश' में अनेक भाषाई समुदाय हो सकते हैं, जिनकी साँस्कृतिक पहचान तक समान हो।
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आज 18 सितम्बर 2014 को सुबह समाचारों में सुना की स्कॉटलैंड में इस बारे में रेफरेंडम हो रहा है कि क्या
वह भौगोलिक क्षेत्र यू.के. में रहेगा या कि उससे अलग एक स्वतंत्र 'राष्ट्र' होगा?
तिब्बत के बारे में भारत की केंद्रीय सरकार की ढुलमुल नीति, कश्मीर के बारे में श्री जवाहरलाल नेहरू की इरादतन या गैर इरादतन भूल का ख़ामियाज़ा हम झेल रहे हैं। इस बारे में हमारी उदासीनता ही हमारे और संसार के विनाश का कारण है। यह ठीक है कि संसार की गति को कोई न तो दिशा दे सकता है, न कम या अधिक कर सकता है। बाँग्लादेश का जन्म इसका स्पष्ट प्रमाण है। चीन या दूसरी विस्तारवादी शक्तियाँ कितनी ही कोशिश कर लें, संसार के नक़्शे में राई-रत्ती का फ़र्क नहीं ला सकती। लेकिन यदि उन शक्तियों को इसका विश्वास है कि वे ऐसा कर सकती हैं तो यह उनकी ग़लतफ़हमी है।
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इस पोस्ट को यहीं पूर्ण करना चाहूँगा। अभी काफी कुछ लिखना है, 'हिंदी' / 'हिन्दू' / 'भारत' / 'इण्डिया' / 'इंडिया' / 'इन्डिया' के बारे में। वह सब अगली पोस्ट्स में।
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