कल का सपना : ध्वंस का उल्लास 30
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कीड़ा है, पर सुन्दर है !
सुन्दर है, पर कीड़ा है,
यह क़ुदरत की क्रीड़ा है,
इससे ना उसको कोई,
ना क़ुदरत को पीड़ा है ।
कीड़ा है, पर सुन्दर है !
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वह मनुष्य की दृष्टि में कीड़ा है, मनुष्य उसकी दृष्टि में क्या है, उससे भी तो पूछो!
कल एक लड़की कह रही थी कि रावण को इतना बुरा क्यों कहा जाता है? उसने साबित कर दिया कि मनुष्य में दृढ संकल्प हो तो वह क्या नहीं कर सकता? मैं मानता हूँ कि यह सच है किन्तु अधूरा सच है, और इसलिए रावण का अन्त बहुत अच्छा तो नहीं हुआ । लेकिन संसार में सौ प्रतिशत बुरा तो वास्तव में कुछ नहीं होता । बुराई में भी एक अच्छाई तो होती ही है कि वह आत्मघाती होती है । अर्थात् स्वयं ही विनष्ट हो जाती है ।
रावण कीड़ा तो शायद नहीं था किन्तु साधारण मनुष्य भी नहीं था । किन्तु उसकी दृढ संकल्प की उस प्रवृत्ति के कारण वह महापुरुष बन गया, वह बहुत कुछ कर सकता था । और उसे बखूबी पता था कि वह नदी के आधे रास्ते को पार कर चुका था और अब उस पार ही जाया जा सकता था, लौटना असंभव था ।
हमारे आज की मानव-सभ्यता का प्रेरक और निर्देशक-सूत्र यही तो हैं, जो रावण के थे ।
यही, कि दृढ इच्छा-शक्ति से दृढ-संकल्प से पक्के इरादे से सफलता के लिए यत्न करो । किन्तु क्या हर सफलता बर्बादी की ओर ही नहीं ले जाती है ? क्योंकि सफल होने के लिए क्रूर, असंवेदनशील होना जरूरी होता है । दूसरी ओर उत्साह सफलता अथवा असफलता की भाषा नहीं समझता । उत्साह स्वयं ही जीवन का उत्स है, किन्तु सफलता या असफलता की छाया छूते ही वह लक्ष्य-केन्द्रित हो जाता है और उसका प्रवाह दिशा-निर्देशित और संकीर्ण हो जाता है । और जरूरी नहीं कि यह लक्ष्य अन्ततः सुखद ही सिद्ध हो । रावण का दृष्टिकोण एकांगी था । दूसरी ओर राम का दृष्टिकोण था प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वहन । यहाँ प्रश्न रावण और राम की तुलना करने का नहीं बल्कि यह देखने का है कि परिस्थितियों के प्रवाह में कैसे वे एक दूसरे के आमने-सामने आए और उससे किसको क्या मिला । हम कह सकते हैं कि ऐतिहासिक रूप से, यहाँ राम और रावण को दो मनुष्यों के रूप में, दो राजाओं की तरह देखा जा रहा है ।
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राम और रावण दो सँस्कृतियों के प्रतीक पुरुष हैं । और ये संस्कृतियाँ भारतीय या विदेशी नहीं आर्य और अनार्य हैं । इतिहासकारों ने आर्य और अनार्य को जाने-अनजाने नस्ल और जाति की तरह प्रस्तुत किया, उन्होंने आर्य-द्रविड को भी इसी चश्मे से देखा और इस आधार पर भारत के लोक-मानस का ऐसा विखण्डन किया जो उनके (गर्हित) उद्देश्य की सफलता के पैमाने पर खरा उतरता था / है । किन्तु आर्य जाति नहीं है, शुद्ध ऐतिहासिक अस्तित्व और परिभाषा है आर्य तथा आर्यावर्त की, जो न सिर्फ़ ’धर्मनिरपेक्षता’ की कसौटी पर भी स्वीकार्य है, बल्कि ’जाति-निरपेक्षता’ तक पर भी खरी उतरती है । भारत-भूमि पर अस्तित्व में आए विभिन्न (धर्मों नहीं,) धार्मिक मतों में ’आर्य’ शब्द का सीधा तात्पर्य है मानवीय अर्थों में सभ्य, परिष्कृत, सुसंस्कृत मनुष्य । और यह उसके आचरण पर आधारित उसकी पहचान है, न कि उसकी जाति, भाषा, परंपरा, उसके विश्वासों अथवा मान्यताओं पर आधारित निष्कर्ष । बौद्ध और जैन ग्रन्थों में आर्य शब्द आसानी से देखा जा सकता है । और ईरान के या जर्मनी के नरेश अपने-आपको आर्य कहने में गौरवान्वित होते थे तो मूलतः यह इसलिए नहीं था कि उनकी जाति या नस्ल आर्य थी, वरन् सिर्फ़ इसलिए कि उनकी परम्परा आर्य थी । वह परंपरा जिसका आधार आचरण था ।
क्या हमारी सभ्यता और संस्कृति इन अर्थों में आर्य है?
क्या इस आधार पर मनुष्य मात्र की संस्कृति आर्य नहीं हो सकती?
’अनार्य’ शब्द अपनी व्याख्या स्वयं ही स्पष्ट कर देता है, जो ’आर्य’ नहीं है, इसकी व्युत्पत्ति ही इस ओर ध्यान दिलाती है कि यह ’जो नहीं है’ का समेकित नाम है । इसलिए यह कोई विशिष्ट जाति है ऐसा सोचना मौलिक रूप से कोरा भ्रम ही है । इसलिए आर्य-अनार्य का द्वन्द्व किन्हीं दो संस्कृतियों का द्वन्द्व नहीं बल्कि मनुष्य के अपने भीतर का द्वन्द्व है ।
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कीड़ा है, पर सुन्दर है !
सुन्दर है, पर कीड़ा है,
यह क़ुदरत की क्रीड़ा है,
इससे ना उसको कोई,
ना क़ुदरत को पीड़ा है ।
कीड़ा है, पर सुन्दर है !
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वह मनुष्य की दृष्टि में कीड़ा है, मनुष्य उसकी दृष्टि में क्या है, उससे भी तो पूछो!
कल एक लड़की कह रही थी कि रावण को इतना बुरा क्यों कहा जाता है? उसने साबित कर दिया कि मनुष्य में दृढ संकल्प हो तो वह क्या नहीं कर सकता? मैं मानता हूँ कि यह सच है किन्तु अधूरा सच है, और इसलिए रावण का अन्त बहुत अच्छा तो नहीं हुआ । लेकिन संसार में सौ प्रतिशत बुरा तो वास्तव में कुछ नहीं होता । बुराई में भी एक अच्छाई तो होती ही है कि वह आत्मघाती होती है । अर्थात् स्वयं ही विनष्ट हो जाती है ।
रावण कीड़ा तो शायद नहीं था किन्तु साधारण मनुष्य भी नहीं था । किन्तु उसकी दृढ संकल्प की उस प्रवृत्ति के कारण वह महापुरुष बन गया, वह बहुत कुछ कर सकता था । और उसे बखूबी पता था कि वह नदी के आधे रास्ते को पार कर चुका था और अब उस पार ही जाया जा सकता था, लौटना असंभव था ।
हमारे आज की मानव-सभ्यता का प्रेरक और निर्देशक-सूत्र यही तो हैं, जो रावण के थे ।
यही, कि दृढ इच्छा-शक्ति से दृढ-संकल्प से पक्के इरादे से सफलता के लिए यत्न करो । किन्तु क्या हर सफलता बर्बादी की ओर ही नहीं ले जाती है ? क्योंकि सफल होने के लिए क्रूर, असंवेदनशील होना जरूरी होता है । दूसरी ओर उत्साह सफलता अथवा असफलता की भाषा नहीं समझता । उत्साह स्वयं ही जीवन का उत्स है, किन्तु सफलता या असफलता की छाया छूते ही वह लक्ष्य-केन्द्रित हो जाता है और उसका प्रवाह दिशा-निर्देशित और संकीर्ण हो जाता है । और जरूरी नहीं कि यह लक्ष्य अन्ततः सुखद ही सिद्ध हो । रावण का दृष्टिकोण एकांगी था । दूसरी ओर राम का दृष्टिकोण था प्राप्त हुए कर्तव्य का निर्वहन । यहाँ प्रश्न रावण और राम की तुलना करने का नहीं बल्कि यह देखने का है कि परिस्थितियों के प्रवाह में कैसे वे एक दूसरे के आमने-सामने आए और उससे किसको क्या मिला । हम कह सकते हैं कि ऐतिहासिक रूप से, यहाँ राम और रावण को दो मनुष्यों के रूप में, दो राजाओं की तरह देखा जा रहा है ।
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राम और रावण दो सँस्कृतियों के प्रतीक पुरुष हैं । और ये संस्कृतियाँ भारतीय या विदेशी नहीं आर्य और अनार्य हैं । इतिहासकारों ने आर्य और अनार्य को जाने-अनजाने नस्ल और जाति की तरह प्रस्तुत किया, उन्होंने आर्य-द्रविड को भी इसी चश्मे से देखा और इस आधार पर भारत के लोक-मानस का ऐसा विखण्डन किया जो उनके (गर्हित) उद्देश्य की सफलता के पैमाने पर खरा उतरता था / है । किन्तु आर्य जाति नहीं है, शुद्ध ऐतिहासिक अस्तित्व और परिभाषा है आर्य तथा आर्यावर्त की, जो न सिर्फ़ ’धर्मनिरपेक्षता’ की कसौटी पर भी स्वीकार्य है, बल्कि ’जाति-निरपेक्षता’ तक पर भी खरी उतरती है । भारत-भूमि पर अस्तित्व में आए विभिन्न (धर्मों नहीं,) धार्मिक मतों में ’आर्य’ शब्द का सीधा तात्पर्य है मानवीय अर्थों में सभ्य, परिष्कृत, सुसंस्कृत मनुष्य । और यह उसके आचरण पर आधारित उसकी पहचान है, न कि उसकी जाति, भाषा, परंपरा, उसके विश्वासों अथवा मान्यताओं पर आधारित निष्कर्ष । बौद्ध और जैन ग्रन्थों में आर्य शब्द आसानी से देखा जा सकता है । और ईरान के या जर्मनी के नरेश अपने-आपको आर्य कहने में गौरवान्वित होते थे तो मूलतः यह इसलिए नहीं था कि उनकी जाति या नस्ल आर्य थी, वरन् सिर्फ़ इसलिए कि उनकी परम्परा आर्य थी । वह परंपरा जिसका आधार आचरण था ।
क्या हमारी सभ्यता और संस्कृति इन अर्थों में आर्य है?
क्या इस आधार पर मनुष्य मात्र की संस्कृति आर्य नहीं हो सकती?
’अनार्य’ शब्द अपनी व्याख्या स्वयं ही स्पष्ट कर देता है, जो ’आर्य’ नहीं है, इसकी व्युत्पत्ति ही इस ओर ध्यान दिलाती है कि यह ’जो नहीं है’ का समेकित नाम है । इसलिए यह कोई विशिष्ट जाति है ऐसा सोचना मौलिक रूप से कोरा भ्रम ही है । इसलिए आर्य-अनार्य का द्वन्द्व किन्हीं दो संस्कृतियों का द्वन्द्व नहीं बल्कि मनुष्य के अपने भीतर का द्वन्द्व है ।
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इसलिए रावण का धर्म ’राक्षस-धर्म’ था, रक्षा करो, किन्तु किसकी? रावण का कहना था ’अस्मिता की’ और उसकी अस्मिता शुद्धतः देह-केन्द्रित और देह से संबन्धित परिजनों, सुखों से थी । ’भोगवाद’ का चरम, जिसे विकास कहा जाता है ।
राम का धर्म इस प्रकार का राक्षस-धर्म न होकर विश्व-धर्म, समष्टि-धर्म था । क्योंकि धर्म वस्तुतः आचरण और आचरण की परंपरा अर्थात् संस्कृति होता है । इसलिए धर्म और सँस्कृति को नाम देकर बाँटा नहीं जा सकता । धर्म और संस्कृति बस आर्य, अनार्य और उनका मिला-जुला रूप भर होते हैं ।
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