आज की कविता
जैसे झाड़ू के दिन फिरे,
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जब झाड़ू ने दिन बुहरे, तब झाड़ू के दिन बुहरे ।
जैसे झाड़ू ने दिन बुहरे, वैसे झाड़ू के दिन बुहरे ।
जैसा हम सुनते आये थे, जैसा हम सुनते आये हैं,
वे झाड़ू लेकर आए थे, सोचा झाड़ू से पा लेंगे,
कुर्सी सत्ता सरकार सभी, सोचा झाड़ू से जीतेंगे,
जाएँगे दुश्मन हार सभी, पर झाड़ू से वे गए हार
झाड़ू ने दिखलाया जादू, बन-बैठी जैसे सूत्रधार ।
जैसे कि झाड़ू के दिन फ़िरे, वैसे सबके ही दिन भी फ़िरें ।
अब तो वह कुछ यूँ लगती है, पूजाघर बैठक गलियारे में,
सड़कों राहों या दफ़्तर में, बाज़ार गली चौराहों में,
जैसे कोई क़लम लिखे अफ़्साना नई रौशनी का,
जैसे कोई चित्र उकेरे, एक नए सूर्योदय का,
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जैसे झाड़ू के दिन फिरे,
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जब झाड़ू ने दिन बुहरे, तब झाड़ू के दिन बुहरे ।
जैसे झाड़ू ने दिन बुहरे, वैसे झाड़ू के दिन बुहरे ।
जैसा हम सुनते आये थे, जैसा हम सुनते आये हैं,
वे झाड़ू लेकर आए थे, सोचा झाड़ू से पा लेंगे,
कुर्सी सत्ता सरकार सभी, सोचा झाड़ू से जीतेंगे,
जाएँगे दुश्मन हार सभी, पर झाड़ू से वे गए हार
झाड़ू ने दिखलाया जादू, बन-बैठी जैसे सूत्रधार ।
जैसे कि झाड़ू के दिन फ़िरे, वैसे सबके ही दिन भी फ़िरें ।
अब तो वह कुछ यूँ लगती है, पूजाघर बैठक गलियारे में,
सड़कों राहों या दफ़्तर में, बाज़ार गली चौराहों में,
जैसे कोई क़लम लिखे अफ़्साना नई रौशनी का,
जैसे कोई चित्र उकेरे, एक नए सूर्योदय का,
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