आज की कविता / 30 / 10 / 2014
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आत्म-स्वीकृति
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मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता,
ये फिर भी सच है कि कोई भी मुझको पा नहीं सकता ।
गो कि ये सच है कि कोई भी मुझको पा नहीं सकता,
जिस पहचान के परदे में हूँ उसको कोई हटा नहीं सकता ।
वो भी इक ज़माना था जब खो गया था अपने-आप से,
पहचान के परदे में लिपटा था अजनबी के लिबास में ।
और जब परदे हटे परदे फटे आँधियों तूफानों में,
हुआ था पल भर में ही मुझे दीदार अपने-आप का ।
ये सच है अब कभी मैं ख़ुद से हो जुदा नहीं सकता ,
और बस इसलिए भी ख़ुद को फिर से पा नहीं सकता ।
और न दूसरा कोई मुझे या मैं भी किसी भी दूसरे को,
मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता ।
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आत्म-स्वीकृति
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मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता,
ये फिर भी सच है कि कोई भी मुझको पा नहीं सकता ।
गो कि ये सच है कि कोई भी मुझको पा नहीं सकता,
जिस पहचान के परदे में हूँ उसको कोई हटा नहीं सकता ।
वो भी इक ज़माना था जब खो गया था अपने-आप से,
पहचान के परदे में लिपटा था अजनबी के लिबास में ।
और जब परदे हटे परदे फटे आँधियों तूफानों में,
हुआ था पल भर में ही मुझे दीदार अपने-आप का ।
ये सच है अब कभी मैं ख़ुद से हो जुदा नहीं सकता ,
और बस इसलिए भी ख़ुद को फिर से पा नहीं सकता ।
और न दूसरा कोई मुझे या मैं भी किसी भी दूसरे को,
मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि कहीं जा नहीं सकता ।
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