आज की कविता : आहिस्ता - आहिस्ता
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सरकती जाए है पाँवों तले से ज़मीं आहिस्ता-आहिस्ता,
क़यामत को नज़र आने लगे हैं हमीं आहिस्ता-आहिस्ता ।
न पत्तों में है, न अब्र में और न रही है आँखों में भी,
हवा में भी जो थी वो उड़ गई नमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
कुछ अपने बाज़ुओं में थी कभी, कुछ हौसले जो दिल में थे,
वक़्त गुज़रते गुज़रते आ गई उनमें कमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
शरमो-हया के तकल्लुफ़ के लिहाज़ के गिरते ही रहे हैं परदे,
इज़हारे-मुहब्बत की मुरव्वत की रौ थमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
दिल डूबता है, डूब जाए हौले-हौले धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता,
हो रहा है सबसे जुदा अब ख़ुशी हो या ग़मी, आहिस्ता-आहिस्ता ।
--©
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सरकती जाए है पाँवों तले से ज़मीं आहिस्ता-आहिस्ता,
क़यामत को नज़र आने लगे हैं हमीं आहिस्ता-आहिस्ता ।
न पत्तों में है, न अब्र में और न रही है आँखों में भी,
हवा में भी जो थी वो उड़ गई नमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
कुछ अपने बाज़ुओं में थी कभी, कुछ हौसले जो दिल में थे,
वक़्त गुज़रते गुज़रते आ गई उनमें कमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
शरमो-हया के तकल्लुफ़ के लिहाज़ के गिरते ही रहे हैं परदे,
इज़हारे-मुहब्बत की मुरव्वत की रौ थमी आहिस्ता-आहिस्ता ।
दिल डूबता है, डूब जाए हौले-हौले धीरे-धीरे आहिस्ता-आहिस्ता,
हो रहा है सबसे जुदा अब ख़ुशी हो या ग़मी, आहिस्ता-आहिस्ता ।
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बहुत सुन्दर। लगता है आप इसे जगजीत सिंह की तर्ज़ पर गए भी सकते हैं
ReplyDeleteThanks P.N. Subramanian Sir, Yes, the poem is on the famous lines of an Urdu poet I think Ghalib, but later on adopted by Amir Minai and sung by Jagjeet Singh ji, ...
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