October 16, 2014

आज की कविता : यह पथ बन्धु था !

आज की कविता :
यह पथ बन्धु था !
_______________

छः साल पहले,
किसी बाध्यता के चलते,
खरीद लिया था,
इस ’पथ’ को,
यह ’पथ’,
जो कितने अगम्य, दुर्गम्य स्थानों से होकर गुजरता है !
तब लेखनी को विश्राम दिया था,
वर्तनी के पग अविश्रांत चलते रहे ।
इस पथ पर मिले कितने पथिक,
कितने घुमन्तू,
कितने भटकते,
तृष्णातुर,
प्यास से दम तोड़ते,
यायावर मृग,
कितने दोनों हाथों से,
द्रविण उलीचते हुए,
कितने शिकार की तलाश में,
जाल बिछाए !
मैं मुस्कुरा देता था,
जानता था कि इसमें
पथ का कोई दोष नहीं है ।
पंथ का शायद होता हो,
अब जब इस पर काफी चल चुका हूँ,
इससे कुछ परिचित हो चुका हूँ,
तो लौट जाने का मन है,
लौटना जरूरी भी है,
उस नगरी,
जहाँ सरस्वती का वास है,
लेखनी चंचल है,
तूलिका व्यग्र है,
और वीणा तरंगित,
हाँ, विदा पथ !
पर आता रहूँगा कभी-कभी पुनः फिर,
तुमसे मिलने भी !
--

No comments:

Post a Comment