भाषा का यह प्रश्न (1)
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बहुत से लोगों को यह लगना स्वाभाविक है कि संस्कृत को उसका उचित स्थान मिलना चाहिए । किन्तु इसके लिए संस्कृत का प्रचार करना और उसे प्रचलन में, व्यवहार की भाषा के रूप में लाया जाना कहाँ तक संभव और जरूरी है? और यदि वह संभव न हो तो जरूरी होने का तो प्रश्न तक नहीं पैदा होता । यदि आपको संस्कृत से प्रेम है, तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आप अंग्रेज़ी के या उर्दू के शत्रु हैं । दुर्भाग्य से किसी भी भाषा से प्रेम रखनेवाले अपनी प्रिय भाषा के अतिरिक्त दूसरी सभी भाषाओं के साथ जाने-अनजाने शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं । किन्तु उनका ध्यान इस ओर बिरले ही कभी जाता है कि यह एक नकारात्मक और हानिकारक तरीका है, न सिर्फ़ अपनी भाषा के प्रचलन और उन्नति की दृष्टि से बल्कि पूरे समाज के हर वर्ग के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा को अपनी कहता हो । सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि कौन सी भाषा सरकारी मान्यता प्राप्त ’राजभाषा’ हो, बल्कि यह भी है, कि उसे ’लादा’ न गया हो । और चूँकि भाषा काफी हद तक भावनात्मक महत्व भी रखती है, व्यावहारिक स्तर पर भी उसकी उतनी ही उपयोगिता
होने के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । भाषा शिक्षा का माध्यम होती है और अन्य अनेक विषयों की भाँति शिक्षा के एक विषय के रूप में भी उसका एक महत्वपूर्ण स्थान तो है ही । इसलिए जहाँ एक ओर भाषा की शिक्षा एक ओर उसके ’माध्यम’ होने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर दी जानी चाहिए, वहीं दूसरी ओर इसे एक विषय के रूप में भी दिया जा सकता है । इसलिए ’भाषा’ की शिक्षा के दो भिन्न भिन्न किन्तु संयुक्त आयाम हैं ।
संस्कृत या किसी भी भाषा के ’प्रचार’ और उसे प्रचलन में लाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ एक कठिनाई यह है कि जब तक लोग उसे अपने लिए जरूरी नहीं समझते तब तक या तो उसकी उपेक्षा करते हैं, या फ़िर उसका विरोध तक करने लगते हैं । और यह विरोध तब और प्रखर हो जाता है जब उस भाषा की ’अपने’ समुदाय की भाषा से किसी प्रकार से भिन्नता या विरोधी होने का भ्रम हम पर हावी हो जाए । उस ’भिन्न’ भाषा से भय हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा है, और इससे दूसरे भी अनेक भय मिलकर इसे और भी जटिल बना देते हैं । दूसरी ओर किसी भी भाषा के उपयोग की बाध्यता या जरूरत महसूस होने पर हम उसे सीखने, प्रयोग करने के लिए खुशी-खुशी, या मन मारकर राजी हो जाते हैं । अंग्रेज़ी ऐसी ही एक भाषा है । अंग्रेज़ी का उपयोग तो सर्वविदित और सर्वस्वीकृत है ही । तब, जो किन्हीं कारणों से अंग्रेज़ी नहीं सीख पाए, उन्हें अफ़सोस होता है, उनमें हीनता की भावना जन्म लेती है, और वे अंग्रेज़ी को कोसने लगते हैं । और अगर उनके बच्चे फ़र्राटे से (सही या गलत भी) अंग्रेज़ी बोल-लिख सकते हैं, तो वे ही लोग, अपने आपको धन्य समझते हैं, गर्व करते हैं । फिर बहुत संभव है कि बच्चे भी अपनी उपलब्धि पर गर्व करने लगें और माता-पिता को हेय दृष्टि से देखने लगें, उन्हें अनपढ़ या गँवार समझने लगें । भले ही मुँह से न कहें, किन्तु उन्हें लोगों से अपने माता-पिता का परिचय कराने में शर्म और झिझक महसूस होने लगे । माता-पिता और बच्चों में दूरियाँ बढ़ने का यह भी एक बड़ा कारण है ।
फिर कोई भाषा क्यों सीखता है? स्पष्ट है कि इसमें बाध्यता, उपयोगिता, भावनात्मक लगाव ये सभी बातें जुड़ी होती हैं । किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि ’मातृभाषा’ ही सीखने के लिए सभी के लिए स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक अनुकूल हो सकती है । और मातृभाषा के बाद हम अपनी जरूरत और रुचि के अनुसार दूसरी भाषाओं में से चुनाव कर सकते हैं ।
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एक उदाहरण :
हिन्दी से मिलती-जुलती किसी बोली में बहुत प्रसिद्ध कहावत है,
’निज-भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, ...’
मैंने इसका संस्कृत अनुवाद कुछ यूँ किया :
’निजभाषोन्नत्यर्हति, सर्वोन्नतिमूलम्’
(निज-भाषा-उन्नति-अर्हति सर्व-उन्नति-मूलम्)
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यद्यपि मैं मानता हूँ कि उपरोक्त अनुवाद में संस्कृत व्याकरण की कोई त्रुटि हो सकती है, जिसे संस्कृत के विद्वान ही इंगित और परिमार्जित कर सकते हैं , किन्तु यहाँ इसे प्रस्तुत करने का एकमात्र ध्येय यह है कि यदि किसी भाषा में आपकी स्वाभाविक रुचि है तो उसे सीखना मजबूरी या उपयोगिता के दबाव में उसे सीखने से अधिक आसान है । अपने इसी भाषा-प्रेम के चलते मैं किसी भी भाषा को समझने का यत्न करता हूँ तो अक़सर अनुभव करता हूँ कि यदि आपने पाणिनी की अष्टाध्यायी का अध्ययन किया है, तो आपको प्रायः हर भाषा में ऐसे संकेत सूत्र दिखलाई दे जाएँगे जहाँ पाणिनी आपको बरबस याद आएँगे । और वह न सिर्फ़ भाषा की बनावट और उसके व्याकरण के कारण, बल्कि उसके शब्दों के स्वनिम (phonetic form) और रूपिम (figurative form) के भी कारण । और तब आपको अनायास स्पष्ट होगा कि भाषा भाषा की शत्रु नहीं बल्कि सखी या भगिनी होती है । यह ठीक है कि हम अपनी भाषा को महत्व दें और उसके विकास के लिए प्रयत्न करें, लेकिन उसे समाज के किसी छोटे या बड़े वर्ग पर लादा जाना न तो समाज के लिए और न अपनी भाषा के लिए ही उचित है । आप चाहें या न चाहें, भाषाएँ सरिताओं की तरह होती हैं, अपने रास्ते बदलती रहती हैं, कई बार तो अपने रास्ते से पूरी तरह दूर होकर दिशा तक बदल लेती है । नदियों की भाँति वे विलुप्त भी हो जाती हैं, और अगर हम आग्रह न करें तो उनका नाम तक बदलता रहता है ।
मैंने सिंहल से लेकर बाँग्ला तक और गुजराती से लेकर उर्दू तक भारत की अधिकाँश भाषाओं को सीखने-समझने का प्रयास किया, और भारतीय के अतिरिक्त तिब्बती, नेपाली, बर्मी तथा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं में भी मेरी अत्यन्त रुचि है । स्पष्ट है कि तमिल, तेलुगु तथा मलयालम, मराठी, आदि में भी मेरी दिलचस्पी है । इन सब भाषाओं के मेरे सतही या गंभीर अध्ययन के बाद मैं जिन निष्कर्षों पर पहुँचा वह यह कि ये सभी संस्कृत से घनिष्ठतः जुड़ी हैं । भाषाशास्त्रियों के लिए यह कोई नई बात न होगी । किन्तु यहाँ इसे लिखने का मेरा उद्देश्य इस ओर संकेत करना है कि तमाम भाषाई झगड़े केवल हमारी नासमझी, आधी-अधूरी जानकारी और काल्पनिक भयों के ही कारण हैं । यदि आप भारत की एक से अधिक भाषाएँ सीखते हैं, खासकर एक दक्षिण भारतीय और एक उत्तर भारतीय भाषा तो आपको स्वयं ही महसूस होगा कि भाषाएँ जल में जल की तरह मिल जाती हैं । किन्तु यदि हमारे मन में पहले से ही दूसरी भाषा के प्रति अरुचि या शत्रुता का, भय या हीन होने की भावना भर दी गई हो, तो हम इस सच्छाई से अपरिचित ही रह जाते हैं । यदि आप भाषा के दो रूपों बोली जानेवाली भाषा तथा लिखी जानेवाली भाषा, की बनावट पर ध्यान दें तो आपको स्पष्ट हो जायेगा कि भाशाओं की विविधता हमारी विरासत और समृद्धि ही है और किसी भी भाषा में सृजन दूसरी सभी भाषाओं को भी समृद्ध ही करता है । यह केवल कोरा बौद्धिक व्यायाम न होकर, उपयोगिता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । जैसे दो चित्रकार दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों, चित्रों की भाषा समझते हैं, और दो संगीतज्ञ भी इसी प्रकार एक दूसरे की रचनाओं को समझ पाते हैं, वैसे ही विभिन्न भाषाओं में जिनकी दिलचस्पी है, वे कभी न कभी सभी भाषाओं के मूल उत्स को पहचान ही लेते हैं, और उनके लिए भाषाएँ परस्पर शत्रु नहीं रह जातीं ।
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इंडोनेशिया के बारे में बहुत नहीं जनता, किन्तु आज (01 नवम्बर 2014) को प्रकाशित 'नईदुनिया - इंदौर' / 'ग्लैमर और कैरियर' में पढ़ा कि इंडोनेशिया की भाषा सीखने की दृष्टि से बहुत सरल है। इससे मेरी अपनी इस समझ की पुष्टि ही हुई की संपूर्ण भारतीय महाद्वीप और सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक की भाषाएँ संस्कृत से व्युत्पन्न हैं भाषा (बहासा) के ध्वन्यात्मक तथा रूपात्मक / लिप्यातक दोनों रूपों में।
कुछ माह पूर्व मेरा एच. पी। का कार्ट्रिज ख़त्म हो गया था। जब नया ख़रीदा तो उस पर लिखा देखा :
triga verna + * / tri-color + black . (triga = त्रिक, verna = वर्ण तो दृष्टव्य ही हैं , * 'काले के लिए ब्लैक का समानार्थी याद नहीं किन्तु वह संस्कृत से निकला है, इसमें संदेह के लिए कोई स्थान नहीं।
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इसलिए भाषा के बारे में मेरा सोचना यह है कि बच्चों को शुरू में मातृभाषा के ही माध्यम से पढ़ाया जाना चाहिए, और शासकीय कार्य के लिए बहुत धीरे-धीरे समय आने पर स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देते हुए, उसके बाद ही राष्ट्रभाषा को स्वीकार्य बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। वास्तव में व्यक्तिगत रूप से तो मेरा अनुमान है कि अंग्रेज़ी को राष्ट्रभाषा के स्थान से बेदखल नहीं किया जा सकता और न उससे किसी का कोई भला होना है। मेरा शायद अतिरंजित ख्याल यह भी है, की आज नहीं तो कल अंग्रेजी की पगडंडियाँ ही संस्कृत के आगमन के लिए मार्ग प्रशस्त करेंगी।
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(निरन्तर - भाषा का यह प्रश्न -2 )
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बहुत से लोगों को यह लगना स्वाभाविक है कि संस्कृत को उसका उचित स्थान मिलना चाहिए । किन्तु इसके लिए संस्कृत का प्रचार करना और उसे प्रचलन में, व्यवहार की भाषा के रूप में लाया जाना कहाँ तक संभव और जरूरी है? और यदि वह संभव न हो तो जरूरी होने का तो प्रश्न तक नहीं पैदा होता । यदि आपको संस्कृत से प्रेम है, तो इसका यह मतलब तो नहीं कि आप अंग्रेज़ी के या उर्दू के शत्रु हैं । दुर्भाग्य से किसी भी भाषा से प्रेम रखनेवाले अपनी प्रिय भाषा के अतिरिक्त दूसरी सभी भाषाओं के साथ जाने-अनजाने शत्रुता का व्यवहार करने लगते हैं । किन्तु उनका ध्यान इस ओर बिरले ही कभी जाता है कि यह एक नकारात्मक और हानिकारक तरीका है, न सिर्फ़ अपनी भाषा के प्रचलन और उन्नति की दृष्टि से बल्कि पूरे समाज के हर वर्ग के लिए, चाहे वह किसी भी भाषा को अपनी कहता हो । सवाल सिर्फ़ यह नहीं है कि कौन सी भाषा सरकारी मान्यता प्राप्त ’राजभाषा’ हो, बल्कि यह भी है, कि उसे ’लादा’ न गया हो । और चूँकि भाषा काफी हद तक भावनात्मक महत्व भी रखती है, व्यावहारिक स्तर पर भी उसकी उतनी ही उपयोगिता
होने के महत्व से इन्कार नहीं किया जा सकता । भाषा शिक्षा का माध्यम होती है और अन्य अनेक विषयों की भाँति शिक्षा के एक विषय के रूप में भी उसका एक महत्वपूर्ण स्थान तो है ही । इसलिए जहाँ एक ओर भाषा की शिक्षा एक ओर उसके ’माध्यम’ होने के उद्देश्य को ध्यान में रखकर दी जानी चाहिए, वहीं दूसरी ओर इसे एक विषय के रूप में भी दिया जा सकता है । इसलिए ’भाषा’ की शिक्षा के दो भिन्न भिन्न किन्तु संयुक्त आयाम हैं ।
संस्कृत या किसी भी भाषा के ’प्रचार’ और उसे प्रचलन में लाने के लिए किए जाने वाले प्रयत्नों के साथ एक कठिनाई यह है कि जब तक लोग उसे अपने लिए जरूरी नहीं समझते तब तक या तो उसकी उपेक्षा करते हैं, या फ़िर उसका विरोध तक करने लगते हैं । और यह विरोध तब और प्रखर हो जाता है जब उस भाषा की ’अपने’ समुदाय की भाषा से किसी प्रकार से भिन्नता या विरोधी होने का भ्रम हम पर हावी हो जाए । उस ’भिन्न’ भाषा से भय हमारी सामूहिक चेतना का हिस्सा है, और इससे दूसरे भी अनेक भय मिलकर इसे और भी जटिल बना देते हैं । दूसरी ओर किसी भी भाषा के उपयोग की बाध्यता या जरूरत महसूस होने पर हम उसे सीखने, प्रयोग करने के लिए खुशी-खुशी, या मन मारकर राजी हो जाते हैं । अंग्रेज़ी ऐसी ही एक भाषा है । अंग्रेज़ी का उपयोग तो सर्वविदित और सर्वस्वीकृत है ही । तब, जो किन्हीं कारणों से अंग्रेज़ी नहीं सीख पाए, उन्हें अफ़सोस होता है, उनमें हीनता की भावना जन्म लेती है, और वे अंग्रेज़ी को कोसने लगते हैं । और अगर उनके बच्चे फ़र्राटे से (सही या गलत भी) अंग्रेज़ी बोल-लिख सकते हैं, तो वे ही लोग, अपने आपको धन्य समझते हैं, गर्व करते हैं । फिर बहुत संभव है कि बच्चे भी अपनी उपलब्धि पर गर्व करने लगें और माता-पिता को हेय दृष्टि से देखने लगें, उन्हें अनपढ़ या गँवार समझने लगें । भले ही मुँह से न कहें, किन्तु उन्हें लोगों से अपने माता-पिता का परिचय कराने में शर्म और झिझक महसूस होने लगे । माता-पिता और बच्चों में दूरियाँ बढ़ने का यह भी एक बड़ा कारण है ।
फिर कोई भाषा क्यों सीखता है? स्पष्ट है कि इसमें बाध्यता, उपयोगिता, भावनात्मक लगाव ये सभी बातें जुड़ी होती हैं । किन्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व यह है कि ’मातृभाषा’ ही सीखने के लिए सभी के लिए स्वाभाविक रूप से सबसे अधिक अनुकूल हो सकती है । और मातृभाषा के बाद हम अपनी जरूरत और रुचि के अनुसार दूसरी भाषाओं में से चुनाव कर सकते हैं ।
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एक उदाहरण :
हिन्दी से मिलती-जुलती किसी बोली में बहुत प्रसिद्ध कहावत है,
’निज-भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, ...’
मैंने इसका संस्कृत अनुवाद कुछ यूँ किया :
’निजभाषोन्नत्यर्हति, सर्वोन्नतिमूलम्’
(निज-भाषा-उन्नति-अर्हति सर्व-उन्नति-मूलम्)
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यद्यपि मैं मानता हूँ कि उपरोक्त अनुवाद में संस्कृत व्याकरण की कोई त्रुटि हो सकती है, जिसे संस्कृत के विद्वान ही इंगित और परिमार्जित कर सकते हैं , किन्तु यहाँ इसे प्रस्तुत करने का एकमात्र ध्येय यह है कि यदि किसी भाषा में आपकी स्वाभाविक रुचि है तो उसे सीखना मजबूरी या उपयोगिता के दबाव में उसे सीखने से अधिक आसान है । अपने इसी भाषा-प्रेम के चलते मैं किसी भी भाषा को समझने का यत्न करता हूँ तो अक़सर अनुभव करता हूँ कि यदि आपने पाणिनी की अष्टाध्यायी का अध्ययन किया है, तो आपको प्रायः हर भाषा में ऐसे संकेत सूत्र दिखलाई दे जाएँगे जहाँ पाणिनी आपको बरबस याद आएँगे । और वह न सिर्फ़ भाषा की बनावट और उसके व्याकरण के कारण, बल्कि उसके शब्दों के स्वनिम (phonetic form) और रूपिम (figurative form) के भी कारण । और तब आपको अनायास स्पष्ट होगा कि भाषा भाषा की शत्रु नहीं बल्कि सखी या भगिनी होती है । यह ठीक है कि हम अपनी भाषा को महत्व दें और उसके विकास के लिए प्रयत्न करें, लेकिन उसे समाज के किसी छोटे या बड़े वर्ग पर लादा जाना न तो समाज के लिए और न अपनी भाषा के लिए ही उचित है । आप चाहें या न चाहें, भाषाएँ सरिताओं की तरह होती हैं, अपने रास्ते बदलती रहती हैं, कई बार तो अपने रास्ते से पूरी तरह दूर होकर दिशा तक बदल लेती है । नदियों की भाँति वे विलुप्त भी हो जाती हैं, और अगर हम आग्रह न करें तो उनका नाम तक बदलता रहता है ।
मैंने सिंहल से लेकर बाँग्ला तक और गुजराती से लेकर उर्दू तक भारत की अधिकाँश भाषाओं को सीखने-समझने का प्रयास किया, और भारतीय के अतिरिक्त तिब्बती, नेपाली, बर्मी तथा अंग्रेज़ी, रूसी, जर्मन आदि विदेशी भाषाओं में भी मेरी अत्यन्त रुचि है । स्पष्ट है कि तमिल, तेलुगु तथा मलयालम, मराठी, आदि में भी मेरी दिलचस्पी है । इन सब भाषाओं के मेरे सतही या गंभीर अध्ययन के बाद मैं जिन निष्कर्षों पर पहुँचा वह यह कि ये सभी संस्कृत से घनिष्ठतः जुड़ी हैं । भाषाशास्त्रियों के लिए यह कोई नई बात न होगी । किन्तु यहाँ इसे लिखने का मेरा उद्देश्य इस ओर संकेत करना है कि तमाम भाषाई झगड़े केवल हमारी नासमझी, आधी-अधूरी जानकारी और काल्पनिक भयों के ही कारण हैं । यदि आप भारत की एक से अधिक भाषाएँ सीखते हैं, खासकर एक दक्षिण भारतीय और एक उत्तर भारतीय भाषा तो आपको स्वयं ही महसूस होगा कि भाषाएँ जल में जल की तरह मिल जाती हैं । किन्तु यदि हमारे मन में पहले से ही दूसरी भाषा के प्रति अरुचि या शत्रुता का, भय या हीन होने की भावना भर दी गई हो, तो हम इस सच्छाई से अपरिचित ही रह जाते हैं । यदि आप भाषा के दो रूपों बोली जानेवाली भाषा तथा लिखी जानेवाली भाषा, की बनावट पर ध्यान दें तो आपको स्पष्ट हो जायेगा कि भाशाओं की विविधता हमारी विरासत और समृद्धि ही है और किसी भी भाषा में सृजन दूसरी सभी भाषाओं को भी समृद्ध ही करता है । यह केवल कोरा बौद्धिक व्यायाम न होकर, उपयोगिता की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होता है । जैसे दो चित्रकार दुनिया के किसी भी कोने में रहते हों, चित्रों की भाषा समझते हैं, और दो संगीतज्ञ भी इसी प्रकार एक दूसरे की रचनाओं को समझ पाते हैं, वैसे ही विभिन्न भाषाओं में जिनकी दिलचस्पी है, वे कभी न कभी सभी भाषाओं के मूल उत्स को पहचान ही लेते हैं, और उनके लिए भाषाएँ परस्पर शत्रु नहीं रह जातीं ।
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इंडोनेशिया के बारे में बहुत नहीं जनता, किन्तु आज (01 नवम्बर 2014) को प्रकाशित 'नईदुनिया - इंदौर' / 'ग्लैमर और कैरियर' में पढ़ा कि इंडोनेशिया की भाषा सीखने की दृष्टि से बहुत सरल है। इससे मेरी अपनी इस समझ की पुष्टि ही हुई की संपूर्ण भारतीय महाद्वीप और सुदूर ऑस्ट्रेलिया तक की भाषाएँ संस्कृत से व्युत्पन्न हैं भाषा (बहासा) के ध्वन्यात्मक तथा रूपात्मक / लिप्यातक दोनों रूपों में।
कुछ माह पूर्व मेरा एच. पी। का कार्ट्रिज ख़त्म हो गया था। जब नया ख़रीदा तो उस पर लिखा देखा :
triga verna + * / tri-color + black . (triga = त्रिक, verna = वर्ण तो दृष्टव्य ही हैं , * 'काले के लिए ब्लैक का समानार्थी याद नहीं किन्तु वह संस्कृत से निकला है, इसमें संदेह के लिए कोई स्थान नहीं।
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इसलिए भाषा के बारे में मेरा सोचना यह है कि बच्चों को शुरू में मातृभाषा के ही माध्यम से पढ़ाया जाना चाहिए, और शासकीय कार्य के लिए बहुत धीरे-धीरे समय आने पर स्थानीय भाषा को प्राथमिकता देते हुए, उसके बाद ही राष्ट्रभाषा को स्वीकार्य बनाने के बारे में सोचा जाना चाहिए। वास्तव में व्यक्तिगत रूप से तो मेरा अनुमान है कि अंग्रेज़ी को राष्ट्रभाषा के स्थान से बेदखल नहीं किया जा सकता और न उससे किसी का कोई भला होना है। मेरा शायद अतिरंजित ख्याल यह भी है, की आज नहीं तो कल अंग्रेजी की पगडंडियाँ ही संस्कृत के आगमन के लिए मार्ग प्रशस्त करेंगी।
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(निरन्तर - भाषा का यह प्रश्न -2 )
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आपकी बातों से सहमत
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