आज की कविता / 02 /11 /2014
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इरादे
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मिले-जुले इरादे,
कुछ काठ कुछ बुरादे,
जलते हैं रवाँ - रवाँ,
बुझते हैं धुआँ - धुआँ ।
कुछ लोहे से तपकर,
निखरकर पिघलकर,
बना जाते हैं तलवार,
ढूँढते हैं सान,
धार पाने को,
कुछ स्वर्ण या रजत से,
पाते है नया श्रृंगार,
बनने को आभूषण,
ढूँढते हैं शिल्पकार,
मिले-जुले इरादे,
कुछ अटे, कुछ सिमटे,
कुछ परस्पर सटे,
और कुछ बँटे,
बुनते हैं स्वप्न कोई,
जिजीविषा में,
अधूरा सा, बेतरतीब,
चिथड़े चिथड़े, पैबंद लगा।
या रचते हैं,
कोई अनूठा 'कोलॉज',
कोई परिपूर्ण जगत,
उल्लास,संगीत, आनन्द भरा,
ज्योतिर्मय,
मिले जुले इरादे ,
रचते हैं, बनाते हैं,
बदलते हैं, मिटाते हैं,
फिर नया रचते हैं,
फिर बदलते / मिटाते हैं,
चलता रहता है चक्र,
अनवरत !
--©
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इरादे
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मिले-जुले इरादे,
कुछ काठ कुछ बुरादे,
जलते हैं रवाँ - रवाँ,
बुझते हैं धुआँ - धुआँ ।
कुछ लोहे से तपकर,
निखरकर पिघलकर,
बना जाते हैं तलवार,
ढूँढते हैं सान,
धार पाने को,
कुछ स्वर्ण या रजत से,
पाते है नया श्रृंगार,
बनने को आभूषण,
ढूँढते हैं शिल्पकार,
मिले-जुले इरादे,
कुछ अटे, कुछ सिमटे,
कुछ परस्पर सटे,
और कुछ बँटे,
बुनते हैं स्वप्न कोई,
जिजीविषा में,
अधूरा सा, बेतरतीब,
चिथड़े चिथड़े, पैबंद लगा।
या रचते हैं,
कोई अनूठा 'कोलॉज',
कोई परिपूर्ण जगत,
उल्लास,संगीत, आनन्द भरा,
ज्योतिर्मय,
मिले जुले इरादे ,
रचते हैं, बनाते हैं,
बदलते हैं, मिटाते हैं,
फिर नया रचते हैं,
फिर बदलते / मिटाते हैं,
चलता रहता है चक्र,
अनवरत !
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