आज की कविता / संध्या के क्षण
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गूँजती हैं घन्टियाँ
मन के कानोँ से सुनूँ,
बज रही हो कहीं जैसे
कृष्ण की व्रजवेणु ।
स्वप्न जैसा मधुर कोई
खुले नयनों से देखूँ,
राधा के चरण छूती
कालिन्दी रजरेणु ।
संध्या की इस वेला में
दिन प्रतिदिन यही लगता,
लौटते जब गौधूलि में
गोपाल गोविन्द धेनु ।।
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गूँजती हैं घन्टियाँ
मन के कानोँ से सुनूँ,
बज रही हो कहीं जैसे
कृष्ण की व्रजवेणु ।
स्वप्न जैसा मधुर कोई
खुले नयनों से देखूँ,
राधा के चरण छूती
कालिन्दी रजरेणु ।
संध्या की इस वेला में
दिन प्रतिदिन यही लगता,
लौटते जब गौधूलि में
गोपाल गोविन्द धेनु ।।
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