November 18, 2014

आज की कविता : ख़ता

आज की कविता : ख़ता
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(© विनय वैद्य / 18 / 11 / 2014)
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पहले आती थी हाले-दिल पे हँसी,
अब किसी बात पर नहीं आती।
मौत का दिन है मुअय्यन फिर भी,
नींद क्यों रात भर, .... … …।
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पहले हर बात पे चौंकता था मैं,
अब किसी बात पर नहीं चौंकता।
पहले हर शख्स पे भौंकता था वो,
मेरा कुत्ता अब किसी पर नहीं भौंकता।
अब किसी से भी नहीं पूछता हूँ वज़ह,
अब किसी को भी मैं नहीं टोकता।
अब न मुज़रिम है कोई और न जुर्म है कुछ भी,
क़ायदा अब किसी को भी कभी नहीं रोकता।
कीजिए खुशी-खुशी से जो भी चाहें करना,
जुर्म करना तो अब है फ़र्ज़, न करना है ख़ता !
और अंत में,
निभाया फ़र्ज़ जो ईमां से मिलेगा ईनाम,
मिलेगी सज़ा भी जो इसमें हुई कोई ख़ता !
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