August 16, 2014

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 14

कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -14
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बचपन में कभी कभी जब मैं कहता था, :
'मुझे भूख लगी है, लेकिन कुछ खाने का मन नहीं है,'
या,
'मुझे भूख नहीं लगी है, लेकिन कुछ खाने का मन हो रहा है,'
तो लोग मुझे पागल समझने लगते थे।
अब 55 साल बाद जब मैं कहता हूँ,
'मुझे आत्महत्या करने का मन हो रहा है, लेकिन मैं मरना नहीं चाहता,'
या,
'मैं मरना तो चाहता हूँ लेकिन मेरा आत्महत्या करने  का मन नहीं हो रहा,'
तो भी लोग मुझे पागल समझने लगते हैं,
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इस छोटी सी समझ ने मुझे समझाया कि मन और शरीर की जरूरतें कभी तो एक जैसी होती हैं और कभी कभी ऐसा नहीं भी होता। और जब ऐसा नहीं होता तो जीवन में द्वंद्व / दुविधा पैदा होती है।
लेकिन क्या मन की और शरीर की जरूरतें अक्सर ही अलग-अलग नहीं होती हैं?
हम मन की जरूरतों को 'इच्छा' कहते हैं, और जब शरीर की जरूरतों को इस इच्छा की तुलना में कम महत्व देते हैं, तब शरीर मन का, और मन भी शरीर का ध्वंस करने लगते हैं।
और इस ध्वंस से उबरने का न तो कोई रास्ता होता है, न रास्ते की जरूरत,  यह तो जीवन की जरूरत है, रीत भी, और उल्लास भी है ।
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बचपन में ही एक गाना सुना था,
आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है, … '
दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू ही तो हैं !
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