कल का सपना : ध्वंस का उल्लास - 20
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ध्वंस का उल्लास अभी जारी है,
कल का सपना भी अभी तारी है,
है यकीं मुझको कि मैं नीचे इसके,
दबके मर जाऊँगा, एहसास बहुत भारी है।
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कुछ लिखना है, और बहुत संक्षेप में, लेकिन अभी वक्त है उसके लिए ।
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अख़बार पढ़ना मेरी मज़बूरी है। वैसी ही जैसे कि सुबह लैट्रिन जाना। सोचता हूँ कि मज़बूरी और स्वेच्छया करने में क्या फर्क है! चूँकि मैं भूख और प्यास से तो लड़ सकता हूँ, क्योंकि जब खाने के लिए पास कुछ नहीं होता, और पीने के लिए दूर दूर तक पानी कहीं नहीं होता, तब आप भूख और प्यास से लड़ते हुए या तो जीत जाते हैं या फिर बस हार जाते हैं। भले ही इसे आप सामाजिक या राजनीतिक रंग दें या न भी दें, सच्चाई पर इससे कोई फर्क कहाँ पड़ता है?
और जब आप इन बुनियादी चीज़ों की फिक्र करने और इनकी मज़बूरियों से ऊपर उठ चुके होते हैं, तब आप मनोरंजन की समस्या, बोरियत की समस्या से दो-चार हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा जीवन में वस्तुतः कोई समस्या है, हाँ मन के स्तर पर 'भविष्य' की कल्पना जरूर होती है, जो अनहोनी की आशंका या (यथार्थपरक या कल्पनापरक) चाह के पूरे होने संभावना की कल्पना के सिवा और क्या हो सकता है? पहली संभावना को भय कहा जा सकता है, और दूसरी को आशा।
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फिर राजनीति और मनोरंजन क्या है?
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किसी भी विचारशील मनुष्य के मन में शारीरिक जरूरतें और राजनीति / मनोरंजन, इन दो सिरों के बीच एक प्रश्न जीवन की सार्थकता और प्रयोजन, अर्थात औचित्य और महत्त्व के बारे में अवश्य ही उठता होगा। फिर यह प्रश्न भी अपने और दूसरे इन दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द सिमट जाता होगा।
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अपने और दूसरे, यह वर्गीकरण भी पुनः हर मनुष्य के लिए अनेक स्तरों और उसकी संवेदनशीलता के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप ले लेता है। अक्सर हर मनुष्य अपने की परिभाषा में समय समय पर बदलाव करता रहता है, उसके भाव को संकुचित या विस्तीर्ण भी करता रहता है। और इसलिए कोई व्यक्ति, समाज, समूह, समुदाय, वस्तु, विचार, आदर्श, भाषा, भावना, दृष्टि या दृष्टिकोण, यहाँ तक कि राष्ट्र भी, जो किसी समय अपना कहा जाता है, पलक झपकते ही दूसरा या पराया हो जाता है।
यह अपने-पराये का वर्गीकरण मनुष्य के मन / चेतना में जहाँ जन्म लेता है, क्या वह स्थान हम सब में एक सा और एक ही नहीं है?
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पिछले पैराग्राफ़ में मैंने जान-बूझकर एक शब्द छोड़ दिया था। वह शब्द है 'धर्म' । ऐसा ही एक अन्य शब्द जो छूट गया, वह है 'जाति' । शायद परंपरा, रीति-रिवाज, भी इसी तरह के कुछ और शब्द हो सकते हैं।
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इन सारे शब्दों के वाच्यार्थ भले ही एक प्रतीत होते हों, लक्ष्यार्थ भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। 'वाच्यार्थ' से मेरा मतलब है उस शब्द का व्यवहारिक तात्पर्य। और 'लक्ष्यार्थ' का मतलब है, जिसे कहने / सुननेवाला समझता है। जैसे जब कहा जाता है, 'आटा पिसवाना है।' तो मतलब होता है 'गेहूँ पिसवाना है।' ऐसे ही जब कहा जाता है, 'नल आ गए?' मतलब होता है 'नलों से पानी आ रहा है क्या?' 'घर आ गया।' का मतलब होता है, 'हम घर पहुँच गए।'
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वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का यह भेद / फर्क अगर हम व्यवहारिक धरातल पर समझ लें, तो भाषा के सम्प्रेषण में होनेवाली त्रुटियों से काफी हद तक बचा जा सकता है। और व्यावहारिक धरातल पर जिस तरह हम हँसकर अपनी भूलों को सुधार लेते हैं,अगर वैसे ही विचारगत होनेवाली संभावित भूलों को भी सुधार सकें तो हमारे अधिकांश मतभेद सरलता से दूर हो सकते हैं।
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'धर्म','जाति', 'परंपरा', 'रीति-रिवाज', 'ईश्वर' ऐसे ही कुछ शब्द हैं जिनके वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हुआ करते हैं। अलग अलग लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि भिन्न भिन्न समुदायों के लिए भी। और मजे की बात यह है कि कोई एक व्यक्ति भी इस बारे में स्पष्टता से, निर्विवाद रूप से सुनिश्चित होता हो, कि इनमें से किस शब्द का वह क्या वाच्यार्थ और क्या लक्ष्यार्थ ग्रहण करता है! फिर यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि हम इनके प्रयोजन, सार्थकता और प्रयोग के बारे में एक दूसरे से सहमत हो सकेंगे? ऐसा होने से पहले अपने-आप को ध्वंस से गुजरना होता है। अपने-आप के ध्वंस से गुजरते हुए समुदाय और सम्पूर्ण मानव समाज का यह ध्वंस कोई नकारात्मक नहीं, बल्कि बहुत सार्थक एक प्रक्रिया हो सकती है।
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ध्वंस का उल्लास अभी जारी है,
कल का सपना भी अभी तारी है,
है यकीं मुझको कि मैं नीचे इसके,
दबके मर जाऊँगा, एहसास बहुत भारी है।
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कुछ लिखना है, और बहुत संक्षेप में, लेकिन अभी वक्त है उसके लिए ।
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अख़बार पढ़ना मेरी मज़बूरी है। वैसी ही जैसे कि सुबह लैट्रिन जाना। सोचता हूँ कि मज़बूरी और स्वेच्छया करने में क्या फर्क है! चूँकि मैं भूख और प्यास से तो लड़ सकता हूँ, क्योंकि जब खाने के लिए पास कुछ नहीं होता, और पीने के लिए दूर दूर तक पानी कहीं नहीं होता, तब आप भूख और प्यास से लड़ते हुए या तो जीत जाते हैं या फिर बस हार जाते हैं। भले ही इसे आप सामाजिक या राजनीतिक रंग दें या न भी दें, सच्चाई पर इससे कोई फर्क कहाँ पड़ता है?
और जब आप इन बुनियादी चीज़ों की फिक्र करने और इनकी मज़बूरियों से ऊपर उठ चुके होते हैं, तब आप मनोरंजन की समस्या, बोरियत की समस्या से दो-चार हो जाते हैं। मुझे नहीं लगता कि इसके अलावा जीवन में वस्तुतः कोई समस्या है, हाँ मन के स्तर पर 'भविष्य' की कल्पना जरूर होती है, जो अनहोनी की आशंका या (यथार्थपरक या कल्पनापरक) चाह के पूरे होने संभावना की कल्पना के सिवा और क्या हो सकता है? पहली संभावना को भय कहा जा सकता है, और दूसरी को आशा।
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फिर राजनीति और मनोरंजन क्या है?
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किसी भी विचारशील मनुष्य के मन में शारीरिक जरूरतें और राजनीति / मनोरंजन, इन दो सिरों के बीच एक प्रश्न जीवन की सार्थकता और प्रयोजन, अर्थात औचित्य और महत्त्व के बारे में अवश्य ही उठता होगा। फिर यह प्रश्न भी अपने और दूसरे इन दो ध्रुवों के इर्द-गिर्द सिमट जाता होगा।
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अपने और दूसरे, यह वर्गीकरण भी पुनः हर मनुष्य के लिए अनेक स्तरों और उसकी संवेदनशीलता के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप ले लेता है। अक्सर हर मनुष्य अपने की परिभाषा में समय समय पर बदलाव करता रहता है, उसके भाव को संकुचित या विस्तीर्ण भी करता रहता है। और इसलिए कोई व्यक्ति, समाज, समूह, समुदाय, वस्तु, विचार, आदर्श, भाषा, भावना, दृष्टि या दृष्टिकोण, यहाँ तक कि राष्ट्र भी, जो किसी समय अपना कहा जाता है, पलक झपकते ही दूसरा या पराया हो जाता है।
यह अपने-पराये का वर्गीकरण मनुष्य के मन / चेतना में जहाँ जन्म लेता है, क्या वह स्थान हम सब में एक सा और एक ही नहीं है?
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पिछले पैराग्राफ़ में मैंने जान-बूझकर एक शब्द छोड़ दिया था। वह शब्द है 'धर्म' । ऐसा ही एक अन्य शब्द जो छूट गया, वह है 'जाति' । शायद परंपरा, रीति-रिवाज, भी इसी तरह के कुछ और शब्द हो सकते हैं।
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इन सारे शब्दों के वाच्यार्थ भले ही एक प्रतीत होते हों, लक्ष्यार्थ भिन्न भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न भिन्न होते हैं। 'वाच्यार्थ' से मेरा मतलब है उस शब्द का व्यवहारिक तात्पर्य। और 'लक्ष्यार्थ' का मतलब है, जिसे कहने / सुननेवाला समझता है। जैसे जब कहा जाता है, 'आटा पिसवाना है।' तो मतलब होता है 'गेहूँ पिसवाना है।' ऐसे ही जब कहा जाता है, 'नल आ गए?' मतलब होता है 'नलों से पानी आ रहा है क्या?' 'घर आ गया।' का मतलब होता है, 'हम घर पहुँच गए।'
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वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ का यह भेद / फर्क अगर हम व्यवहारिक धरातल पर समझ लें, तो भाषा के सम्प्रेषण में होनेवाली त्रुटियों से काफी हद तक बचा जा सकता है। और व्यावहारिक धरातल पर जिस तरह हम हँसकर अपनी भूलों को सुधार लेते हैं,अगर वैसे ही विचारगत होनेवाली संभावित भूलों को भी सुधार सकें तो हमारे अधिकांश मतभेद सरलता से दूर हो सकते हैं।
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'धर्म','जाति', 'परंपरा', 'रीति-रिवाज', 'ईश्वर' ऐसे ही कुछ शब्द हैं जिनके वाच्यार्थ और लक्ष्यार्थ अलग अलग लोगों के लिए अलग अलग हुआ करते हैं। अलग अलग लोगों के लिए ही नहीं, बल्कि भिन्न भिन्न समुदायों के लिए भी। और मजे की बात यह है कि कोई एक व्यक्ति भी इस बारे में स्पष्टता से, निर्विवाद रूप से सुनिश्चित होता हो, कि इनमें से किस शब्द का वह क्या वाच्यार्थ और क्या लक्ष्यार्थ ग्रहण करता है! फिर यह अपेक्षा कैसे की जा सकती है कि हम इनके प्रयोजन, सार्थकता और प्रयोग के बारे में एक दूसरे से सहमत हो सकेंगे? ऐसा होने से पहले अपने-आप को ध्वंस से गुजरना होता है। अपने-आप के ध्वंस से गुजरते हुए समुदाय और सम्पूर्ण मानव समाज का यह ध्वंस कोई नकारात्मक नहीं, बल्कि बहुत सार्थक एक प्रक्रिया हो सकती है।
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