कल का सपना : ध्वंस का उल्लास -15,
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बचपन से मुझे (?) अपना यह दोहरा अस्तित्व दिलचस्प लगता रहा था।
अक्सर देखता था, शरीर अपने ढंग से अपना जीवन बिता रहा है और मन का उसे पता हो ऐसा भी नहीं कह सकते। जबकि मन को शरीर का भी पता होता था, खुद का भी और दुनिया का भी। लेकिन मन का यह सारा ज्ञान बस उसकी याददाश्त भर होता था। इसलिए जब मन कुछ कहता था तो वह एक विचार भर होता था। मन सोचता था कि शरीर उसका गुलाम है, लेकिन मन को इसकी कल्पना तक नहीं थी कि वह खुद विचार का गुलाम है ! विचार जो याददाश्त से आते हैं, वहीं जमा रहते हैं, घटते बढ़ते रहते हैं।
और विचार को यह नहीं पता था कि मस्तिष्क ही उसे क्षणिक अस्तित्व देता है।
फिर मस्तिष्क भी दो तरह की याददाश्त रखता है। एक तो विचार के रूप में, दूसरी अनुभव के रूप में।
ये दोनों भी पहला तो इम्पल्स (impulse) के रूप में और दूसरा रासायनिक प्रतिक्रियाओं के रूप में होता है। शरीर भी इन दो तरह की भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है, और जब तक ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं, शरीर को जीवित कहा जाता है।
Conversely,
जब तक शरीर जीवित रहता है, ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं।
(शरीर के दूसरे हिस्सों और ) मस्तिष्क में चलनेवाली ये दोनों भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ यूँ तो दो तरह की होती हैं, लेकिन जैसे voltaic cell में रासायनिक ऊर्जा बिजली में बदल जाती है, और electrolysis में विद्युत् - ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदल जाती है, और हालाँकि होती दोनों एक ही हैं पर दिखलाई देती है दो रूपों में, वैसे ही शरीर में चल रहे impulses और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ मूलतः एक ही शक्ति के दो रूप भर होते हैं।
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मन कुछ नहीं कहता, यह तो विचार होता है जो मन की सतह पर उभर आता है, और फिर डुबकी लगा जाता है। वही, जिसे मस्तिष्क लगातार उगलता रहता है। जो हर बार नए रंग रूप में सामने आता है।
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'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
जब यह विचार सतह पर उभरकर आता है, तो ज़ाहिर सी बात है कि शरीर ऐसा कोई ख्याल नहीं कर सकता। इस गूढ विचार की anatomy / physiology पर ध्यान दें तो समझ में आ जाता है कि विचार जो एक impulse का ही शब्दीकरण (verbalization) है, न तो खुद को मार सकता है, न शरीर को। वह बेचारा तो जैसे ही पैदा होता है, तुरंत ही खो भी जाता है। इसलिए जब
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
यह विचार मन में आता है तो यह अपने आप में absurd ख्याल ही होता है ! यह विचार 'कौन' करता है? ज़ाहिर है कि 'विचार करनेवाला' कहीं कोई अलग से नहीं होता। लेकिन मन ही 'मैं' के भ्रम से ग्रस्त हो जाता है और शरीर को और शरीर के सन्दर्भ से नाम-रूपधारी व्यक्ति को 'मैं' कहा जाता है। जो सिर्फ बस एक ख्याल ही तो होता है!
हृदय इस सब से अछूता बस देखता रहता है इस नाटक को। वह न कुछ कहता है, न सोचता है, और न चाहता या करता है। लेकिन उसे कौन जानता है? जो जानता है क्या वह हृदय ही नहीं है?
--
इसलिए
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
का ख्याल मूलतः एक भ्रम का ही परिणाम है। भ्रम से उत्पन्न होनेवाला एक विचार।
जब यह स्पष्ट हो जाता है, तो शरीर और मन की 'जरूरतों' के बीच टकराहट नहीं होती। दोनों अपना अपना जीवन साथ साथ लेकिन स्वतंत्र भी जीते रहते हैं और जीवन जब चाहता है, हृदय तब देखता है कि अब वे और उनका नाटक समाप्त हो चुका।
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बचपन से मुझे (?) अपना यह दोहरा अस्तित्व दिलचस्प लगता रहा था।
अक्सर देखता था, शरीर अपने ढंग से अपना जीवन बिता रहा है और मन का उसे पता हो ऐसा भी नहीं कह सकते। जबकि मन को शरीर का भी पता होता था, खुद का भी और दुनिया का भी। लेकिन मन का यह सारा ज्ञान बस उसकी याददाश्त भर होता था। इसलिए जब मन कुछ कहता था तो वह एक विचार भर होता था। मन सोचता था कि शरीर उसका गुलाम है, लेकिन मन को इसकी कल्पना तक नहीं थी कि वह खुद विचार का गुलाम है ! विचार जो याददाश्त से आते हैं, वहीं जमा रहते हैं, घटते बढ़ते रहते हैं।
और विचार को यह नहीं पता था कि मस्तिष्क ही उसे क्षणिक अस्तित्व देता है।
फिर मस्तिष्क भी दो तरह की याददाश्त रखता है। एक तो विचार के रूप में, दूसरी अनुभव के रूप में।
ये दोनों भी पहला तो इम्पल्स (impulse) के रूप में और दूसरा रासायनिक प्रतिक्रियाओं के रूप में होता है। शरीर भी इन दो तरह की भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाओं का परिणाम है, और जब तक ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं, शरीर को जीवित कहा जाता है।
Conversely,
जब तक शरीर जीवित रहता है, ये प्रतिक्रियाएँ चलती रहती हैं।
(शरीर के दूसरे हिस्सों और ) मस्तिष्क में चलनेवाली ये दोनों भौतिक और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ यूँ तो दो तरह की होती हैं, लेकिन जैसे voltaic cell में रासायनिक ऊर्जा बिजली में बदल जाती है, और electrolysis में विद्युत् - ऊर्जा रासायनिक ऊर्जा में बदल जाती है, और हालाँकि होती दोनों एक ही हैं पर दिखलाई देती है दो रूपों में, वैसे ही शरीर में चल रहे impulses और रासायनिक प्रतिक्रियाएँ मूलतः एक ही शक्ति के दो रूप भर होते हैं।
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मन कुछ नहीं कहता, यह तो विचार होता है जो मन की सतह पर उभर आता है, और फिर डुबकी लगा जाता है। वही, जिसे मस्तिष्क लगातार उगलता रहता है। जो हर बार नए रंग रूप में सामने आता है।
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'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
जब यह विचार सतह पर उभरकर आता है, तो ज़ाहिर सी बात है कि शरीर ऐसा कोई ख्याल नहीं कर सकता। इस गूढ विचार की anatomy / physiology पर ध्यान दें तो समझ में आ जाता है कि विचार जो एक impulse का ही शब्दीकरण (verbalization) है, न तो खुद को मार सकता है, न शरीर को। वह बेचारा तो जैसे ही पैदा होता है, तुरंत ही खो भी जाता है। इसलिए जब
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
यह विचार मन में आता है तो यह अपने आप में absurd ख्याल ही होता है ! यह विचार 'कौन' करता है? ज़ाहिर है कि 'विचार करनेवाला' कहीं कोई अलग से नहीं होता। लेकिन मन ही 'मैं' के भ्रम से ग्रस्त हो जाता है और शरीर को और शरीर के सन्दर्भ से नाम-रूपधारी व्यक्ति को 'मैं' कहा जाता है। जो सिर्फ बस एक ख्याल ही तो होता है!
हृदय इस सब से अछूता बस देखता रहता है इस नाटक को। वह न कुछ कहता है, न सोचता है, और न चाहता या करता है। लेकिन उसे कौन जानता है? जो जानता है क्या वह हृदय ही नहीं है?
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इसलिए
'मैं आत्महत्या करना चाहता / चाहती हूँ।'
का ख्याल मूलतः एक भ्रम का ही परिणाम है। भ्रम से उत्पन्न होनेवाला एक विचार।
जब यह स्पष्ट हो जाता है, तो शरीर और मन की 'जरूरतों' के बीच टकराहट नहीं होती। दोनों अपना अपना जीवन साथ साथ लेकिन स्वतंत्र भी जीते रहते हैं और जीवन जब चाहता है, हृदय तब देखता है कि अब वे और उनका नाटक समाप्त हो चुका।
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