'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन'
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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मुझे आश्चर्य होता है कि शायद प्रत्येक ही मनुष्य इन तीन शब्दों का इस्तेमाल अनेक बार और लगभग रोज़ ही करता है, और फिर भी इन शब्दों का उसके लिए क्या तात्पर्य है, इस पर गंभीरता से सोचता हो. अगर आप बीमार हैं तो आपको यह समझने में अधिक समय नहीं लगता कि अब आपको क्या करना चाहिए . शायद आप इसे छोटी-मोटी बात समझकर छोटे-मोटे तरीके से इसका उपाय कर लें, या अधिक कष्ट अनुभव होने पर डॉक्टर और हॉस्पिटल जाने के बारे में सोचें. इसका सीधा कारण यह है कि आप बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ और असुविधा को 'महसूस' करते हैं. 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जिन्हें हम उस तरह महसूस नहीं करते जैसे कि बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ को सीधे महसूस किया करते हैं. बीमार होने से होनेवाली तकलीफ़ पहले महसूस की जाती है और फ़िर उसके अस्तित्व के बारे में विचार या निर्णय होता है. इस दृष्टि से जिसे 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' कहा जाता है, उसके 'महसूस' किए जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वे 'विचार-जनित निष्कर्ष' होते हैं, न कि 'अनुभवगम्य तथ्य'. और 'विचार जनित निष्कर्ष' / 'विचार-जनित प्रश्न' का कोई वास्तविक और प्रत्यक्ष 'हल' या 'समाधान' कैसे हो सकता है? हाँ, यह हो सकता है कि कोई ऐसा भाषागत उपाय हो जिससे उस प्रश्न को अप्रासंगिक और निष्क्रिय बना दिया जाए. और प्रायः ऐसा ही होता भी है.
'समय' की समस्या के भी दो प्रकार हैं, एक तो 'समायोजन' की, जिसे 'परमाणु-घड़ी' से लेकर यांत्रिक घड़ी या 'सौर-घड़ी' तक से साधा जाता है, और वह निश्चित ही 'समय' की एक ऐसी 'शुद्धतः भौतिक' सत्ता का 'वैज्ञानिक प्रमाण' भी है, जिसे 'विचार' की सहायता से अनुमानित किया जा सकता है और उन अनुमानों से ऐसे 'निष्कर्षों' को पाया जा सकता है, जिन्हें 'प्रयोग', 'अवलोकन' और पुनरावृत्ति द्वारा 'नियमों' के रूप में उनकी पुष्टि भी गणितीय सटीकता के साथ 'तय' की जा सकती है. और निश्चित ही इससे जीवन अत्यंत सुचारू और व्यवस्थित भी किया जा सकता है (वैसे हम शायद ही कभी इस बारे में सोचते हों).
'समय' का दूसरा प्रकार वह है जिसमें 'समय' की गति उपरोक्त अनुमानों से तय की गई हमारी अपेक्षा से धीमी या तेज हो जाती है. जैसे बस या ट्रेन के इंतज़ार के समय, या किसी ज़रूरत के पूरे होने के इंतज़ार में. वह ज़रूरत 'सुख' का होना, या 'दुःख' / 'चिंता' / 'भय' का दूर होना आदि भिन्न भिन्न रूपों में हो सकता है.
कभी कभी 'समय' कम उपलब्ध होता है, कभी इतना अधिक कि हमारा मन स्थिति से सामंजस्य नहीं कर पाता. जैसे नल में पानी का बहुत तेज़ी से या बहुत धीरे धीरे आना. ऐसे कितने ही उदाहरण हर कोई दिखला सकता है.
यह ठीक है कि 'समय' उसकी अपनी 'वैश्विक-घड़ी' के अनुसार चलता है, लेकिन 'बीतता' हमारी अपनी अपनी वैयक्तिक घड़ी के कम या अधिक अनुकूल या प्रतिकूल है.
'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' इन तीनों की एक रोचक सच्चाई यह भी है कि जब हम सो जाते हैं, उस समय हमारे लिए इनमें से कोई भी समस्या नहीं होता. शायद इसीलिए मनुष्य किसी 'माध्यम' की सहायता से 'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' से छुटकारा पाने की कोशिश करता है, और उसका 'आदी' भी हो जाता है. इस 'माध्यम' को किसी समाज में स्वीकृति / सम्मान प्राप्त हो सकता है, किसी में ऐसा नहीं भी हो सकता. तम्बाकू, शराब सामान्यतः अनुचित समझे जाते हैं, किन्तु उन्हें भी गौरव प्रदान किया जाता है, उनमें भी 'शान' महसूस की जाती है. दूसरे 'ड्रग्स' जिन्हें डॉक्टर की सलाह से लिया जाता है, भी ऐसे 'माध्यम' हो सकते हैं, जीवन में कोई 'लक्ष्य' तय कर लेना, महान और सफल होना भी ऐसी 'प्रेरणा' हो सकता है जो जीवन को 'सार्थकता' देता प्रतीत होता हो, 'आध्यात्म' और 'धर्म' कोई राजनीतिक विचारधारा, कोई कल्पित या स्मृति में आरोपित 'ईश्वर' भी हमारे लिए ऐसे माध्यम का कार्य बखूबी करते हैं, क्योंकि यह सबसे सरल है. किसी 'विचार' / 'सिद्धान्त' के अनुयायी होना 'आत्म-गौरव' प्रदान करता है, भले ही कुछ समय बाद हम खुद ही उस 'विचार'/ 'सिद्धान्त' से ऊब जाएँ ! कभी कभी तो उसके बाद भी वह 'प्रतिष्ठा' का प्रश्न बन जाने से मनुष्य न चाहते हुए भी उसे नहीं छोड़ पाता.
दूसरी ओर शरीर कुछ कार्य तो किसी सीमा तक सरलता से और स्वाभाविक रूप से कर सकता है, किन्तु उस सीमा के बाद थक जाने पर या रुचि / बाध्यता न होने पर उसी कार्य से ऊब होने लगती है. यह ऊब भी स्वाभाविक ही है, किन्तु जीवन-यापन के लिए, आजीविका के लिए मनुष्य इसे जीवन कि अपरिहार्य ज़रूरत समझने लगता है. और तब उसे अपने कार्य के लिए आवश्यक ऊर्जा अपने ही भीतर मिल जाती है.
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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मुझे आश्चर्य होता है कि शायद प्रत्येक ही मनुष्य इन तीन शब्दों का इस्तेमाल अनेक बार और लगभग रोज़ ही करता है, और फिर भी इन शब्दों का उसके लिए क्या तात्पर्य है, इस पर गंभीरता से सोचता हो. अगर आप बीमार हैं तो आपको यह समझने में अधिक समय नहीं लगता कि अब आपको क्या करना चाहिए . शायद आप इसे छोटी-मोटी बात समझकर छोटे-मोटे तरीके से इसका उपाय कर लें, या अधिक कष्ट अनुभव होने पर डॉक्टर और हॉस्पिटल जाने के बारे में सोचें. इसका सीधा कारण यह है कि आप बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ और असुविधा को 'महसूस' करते हैं. 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जिन्हें हम उस तरह महसूस नहीं करते जैसे कि बीमारी से होनेवाली तकलीफ़ को सीधे महसूस किया करते हैं. बीमार होने से होनेवाली तकलीफ़ पहले महसूस की जाती है और फ़िर उसके अस्तित्व के बारे में विचार या निर्णय होता है. इस दृष्टि से जिसे 'समय', 'ऊब', और 'अकेलापन' कहा जाता है, उसके 'महसूस' किए जाने का तो प्रश्न ही नहीं उठता, क्योंकि वे 'विचार-जनित निष्कर्ष' होते हैं, न कि 'अनुभवगम्य तथ्य'. और 'विचार जनित निष्कर्ष' / 'विचार-जनित प्रश्न' का कोई वास्तविक और प्रत्यक्ष 'हल' या 'समाधान' कैसे हो सकता है? हाँ, यह हो सकता है कि कोई ऐसा भाषागत उपाय हो जिससे उस प्रश्न को अप्रासंगिक और निष्क्रिय बना दिया जाए. और प्रायः ऐसा ही होता भी है.
'समय' की समस्या के भी दो प्रकार हैं, एक तो 'समायोजन' की, जिसे 'परमाणु-घड़ी' से लेकर यांत्रिक घड़ी या 'सौर-घड़ी' तक से साधा जाता है, और वह निश्चित ही 'समय' की एक ऐसी 'शुद्धतः भौतिक' सत्ता का 'वैज्ञानिक प्रमाण' भी है, जिसे 'विचार' की सहायता से अनुमानित किया जा सकता है और उन अनुमानों से ऐसे 'निष्कर्षों' को पाया जा सकता है, जिन्हें 'प्रयोग', 'अवलोकन' और पुनरावृत्ति द्वारा 'नियमों' के रूप में उनकी पुष्टि भी गणितीय सटीकता के साथ 'तय' की जा सकती है. और निश्चित ही इससे जीवन अत्यंत सुचारू और व्यवस्थित भी किया जा सकता है (वैसे हम शायद ही कभी इस बारे में सोचते हों).
'समय' का दूसरा प्रकार वह है जिसमें 'समय' की गति उपरोक्त अनुमानों से तय की गई हमारी अपेक्षा से धीमी या तेज हो जाती है. जैसे बस या ट्रेन के इंतज़ार के समय, या किसी ज़रूरत के पूरे होने के इंतज़ार में. वह ज़रूरत 'सुख' का होना, या 'दुःख' / 'चिंता' / 'भय' का दूर होना आदि भिन्न भिन्न रूपों में हो सकता है.
कभी कभी 'समय' कम उपलब्ध होता है, कभी इतना अधिक कि हमारा मन स्थिति से सामंजस्य नहीं कर पाता. जैसे नल में पानी का बहुत तेज़ी से या बहुत धीरे धीरे आना. ऐसे कितने ही उदाहरण हर कोई दिखला सकता है.
यह ठीक है कि 'समय' उसकी अपनी 'वैश्विक-घड़ी' के अनुसार चलता है, लेकिन 'बीतता' हमारी अपनी अपनी वैयक्तिक घड़ी के कम या अधिक अनुकूल या प्रतिकूल है.
'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' इन तीनों की एक रोचक सच्चाई यह भी है कि जब हम सो जाते हैं, उस समय हमारे लिए इनमें से कोई भी समस्या नहीं होता. शायद इसीलिए मनुष्य किसी 'माध्यम' की सहायता से 'समय', 'ऊब' और 'अकेलापन' से छुटकारा पाने की कोशिश करता है, और उसका 'आदी' भी हो जाता है. इस 'माध्यम' को किसी समाज में स्वीकृति / सम्मान प्राप्त हो सकता है, किसी में ऐसा नहीं भी हो सकता. तम्बाकू, शराब सामान्यतः अनुचित समझे जाते हैं, किन्तु उन्हें भी गौरव प्रदान किया जाता है, उनमें भी 'शान' महसूस की जाती है. दूसरे 'ड्रग्स' जिन्हें डॉक्टर की सलाह से लिया जाता है, भी ऐसे 'माध्यम' हो सकते हैं, जीवन में कोई 'लक्ष्य' तय कर लेना, महान और सफल होना भी ऐसी 'प्रेरणा' हो सकता है जो जीवन को 'सार्थकता' देता प्रतीत होता हो, 'आध्यात्म' और 'धर्म' कोई राजनीतिक विचारधारा, कोई कल्पित या स्मृति में आरोपित 'ईश्वर' भी हमारे लिए ऐसे माध्यम का कार्य बखूबी करते हैं, क्योंकि यह सबसे सरल है. किसी 'विचार' / 'सिद्धान्त' के अनुयायी होना 'आत्म-गौरव' प्रदान करता है, भले ही कुछ समय बाद हम खुद ही उस 'विचार'/ 'सिद्धान्त' से ऊब जाएँ ! कभी कभी तो उसके बाद भी वह 'प्रतिष्ठा' का प्रश्न बन जाने से मनुष्य न चाहते हुए भी उसे नहीं छोड़ पाता.
दूसरी ओर शरीर कुछ कार्य तो किसी सीमा तक सरलता से और स्वाभाविक रूप से कर सकता है, किन्तु उस सीमा के बाद थक जाने पर या रुचि / बाध्यता न होने पर उसी कार्य से ऊब होने लगती है. यह ऊब भी स्वाभाविक ही है, किन्तु जीवन-यापन के लिए, आजीविका के लिए मनुष्य इसे जीवन कि अपरिहार्य ज़रूरत समझने लगता है. और तब उसे अपने कार्य के लिए आवश्यक ऊर्जा अपने ही भीतर मिल जाती है.
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