आज की कविता / भीतर और इर्द-गिर्द.
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है,
आईना तोड़ कर अक्स बदलोगे कैसे,
अक्स दुरुस्त करना हो तो आईना ही बदल डालो,
और उससे भी न होता हो ग़र मक़सद हासिल,
हो सके तो आईने से नज़रें हटा लो,
पर कहाँ ठहरेंगी नज़रें तुम्हारी,
हर तरफ अगर सिर्फ आईने ही हों,
हाँ ये मुमकिन है सिर्फ उस सूरत में,
देख पाओगे खुद को जब हर मूरत में,
और तब अगर तस्वीर नहीं भी बदले,
तुम्हारी शक्ल तुम्हें नज़र ज़रूर आएगी,
और फिर शक्ल को बदल पाना,
इतना मुश्किल भी नहीं कोई सपना !
वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है, ...
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© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है,
आईना तोड़ कर अक्स बदलोगे कैसे,
अक्स दुरुस्त करना हो तो आईना ही बदल डालो,
और उससे भी न होता हो ग़र मक़सद हासिल,
हो सके तो आईने से नज़रें हटा लो,
पर कहाँ ठहरेंगी नज़रें तुम्हारी,
हर तरफ अगर सिर्फ आईने ही हों,
हाँ ये मुमकिन है सिर्फ उस सूरत में,
देख पाओगे खुद को जब हर मूरत में,
और तब अगर तस्वीर नहीं भी बदले,
तुम्हारी शक्ल तुम्हें नज़र ज़रूर आएगी,
और फिर शक्ल को बदल पाना,
इतना मुश्किल भी नहीं कोई सपना !
वह जो हमारे चारों ओर,
'होता' दिखाई देता है,
बस हमारा ही अक्स है,
हमारे ही भीतर होता है, ...
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