March 02, 2015

एक संस्कृत शब्द : 'वृत्तिः'

एक संस्कृत शब्द : 'वृत्तिः'
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'वृ' > 'वरण करना', हमारा मन जो एक चेतन-अवस्था है, जागृति, स्वप्न और गहरी निद्रा इन तीन स्थितियों में पाया / देखा / अनुभव किया जाता है . इनमें से जागृति ही एक ऐसी स्थिति है जब हम भूत और भविष्य के बारे में अनुमान  कर सकते हैं, यह अनुमान स्वयं उस भूत और उस भविष्य से बिलकुल अलग एक तत्त्व है, जिसे चित्त कहा जाता है . चित्त भिन्न-भिन्न स्थितियों से गुज़रता रहता है . अर्थात् हमारा मन चित्त के रूप में भिन्न-भिन्न स्थितियों का 'वरण' करता और उन्हें त्यागता भी रहता है .अर्थात् इस प्रकार से चुनने और छोड़ने के पहले भी अस्तित्व में होता है . 'वृत्' > 'होना' . वह जो चुनता / छोड़ता है, जो पहले से ही विद्यमान है,  वह है हमारा मन जो एक चेतन-अवस्था है. वृत् > वृत्तिः होती है . वृत्ति परिवर्तनशील है, जबकि 'वृत्' > 'वृतम्' / 'वृतः' स्थिर आधार है . परिवर्तनशीलता में भी पुनरावृत्ति की संभावना होती ही है .  इसलिए मन की स्थिर अवस्था को चित् / चेतना (अर्थात् बोध) और परिवर्तनशील स्थिति / चंचलता को चित्त  अर्थात् 'वृत्ति' कहा जाता है . यदि इस 'वृत्ति' को शांत कर दिया जाए, तो मन  के यथार्थ स्वरूप के रह जाने से 'वह क्या है?' इसका ज्ञान / बोध हो जाता है . यह ज्ञान कोई 'वृत्ति' नहीं बल्कि 'समझ' / 'समाधान' है . सामान्यतः हमारा मन 'वृत्ति' / किसी वृत्ति के उठने या शान्त होने के बीच की, अर्थात एक 'विचार' के उठने और विलीन होने के बाद दूसरे 'विचार' के उठने के बीच की 'अपनी' स्वाभाविक सहज स्थिति को नहीं देख पाता. और इसलिए एक वृत्ति के जाने के बाद 'दूसरी' के उठने पर उससे एकात्म हो जाता है, अर्थात् मन जो वस्तुतः 'दृष्टा' है, वृत्ति से सारूप्य स्थापित कर 'अपनी' पहचान कल्पित कर लेता है. किन्तु यह 'कल्पना' वृत्ति नहीं बल्कि कोरा अज्ञान मात्र है, जिसका निराकरण करने पर वृत्ति को भी नहीं पाया जाता .
योगशास्त्र में इसी तथ्य से पारंभ किया जाता है :
अथ योगानुशासनम् |
योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः |
तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम् |
वृत्तिसारुप्यम् इतरत्र |
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