March 04, 2015

हेतु और प्रयोजन

हेतु और प्रयोजन
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मनुष्य के लिए चार 'पुरुषार्थ' कहे गए हैं. 'धर्म' 'अर्थ' 'काम' और 'मोक्ष'
'धर्म' का तात्पर्य है जो सहज, स्वाभाविक रूप से प्राप्त हुआ कर्तव्य है जिसके न करने से मनुष्य का जीवन नष्ट के समान है, इस धर्म / या कर्तव्य में भी विहित, प्रासंगिक, काम्य, निषिद्ध और श्रेय ये पाँच प्रकार हैं. विहित - जो विधिसम्मत वर्ण-आश्रम-धर्म हैं, प्रासंगिक, जो परिस्थितियों के अनुसार उचित या अनुचित होते हैं, काम्य - जिनकी कामना होना स्वाभाविक ही है - जैसे दुःख के दूर होने और सुख तथा सबके कल्याण की कामना होना . निषिद्ध - जिनके करने से अपनी तथा दूसरों की भी हानि (हा > हानि >हेय = त्याज्य ) होती हो, अर्थात् मूलतः जिसमें हिंसा होती हो, श्रेय - जिनसे अपना तथा संसार का कल्याण हो.
'अर्थ'  का अर्थ है 'हेतु' और 'प्रयोजन' . 'हेतु' > 'हित' > 'धा' धातु के साथ 'क्त' प्रत्यय होने पर बना शब्द है . 'धा' अर्थात् जिसे धारण किया गया, पाया गया है .
'प्रयोजन' का अर्थ है 'उद्देश्य' अर्थात् 'उत्  + देश्य' जिसे आगे चलकर पाया जा सकता है,
 इसलिए 'प्रयोजन' भी 'हेतु' का एक तात्पर्य होता है, जैसे बीज वृक्ष और वृक्ष बीज होता है, इसका एक मतलब 'कारण' तथा 'कार्य' भी होता है .
'संपत्ति' चूँकि जीवन के सुखपूर्वक निर्वाह के लिए आवश्यक होती है, इसलिए 'गौण' अर्थ में 'संपत्ति' को 'अर्थ' कहा जाता है .
'अर्थ' शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से 'पुरुषार्थ' के लिए किया जाता है, जबकि 'गौण' / secondary रूप से धन के लिए.
संपत्ति / धन जब साधन होता है तब गौण अर्थ में, और जब साध्य होता है तो 'प्रयोजन' के अर्थ में.
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