March 31, 2015

प्रेम - एक त्रिकोण / कविता

© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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प्रेम-त्रिकोण-1
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प्रेम एक त्रिकोण है,
सातत्यरहित, शाश्वत्,
एक अग्नि-त्रिकोण,
नित्य और निरन्तर।
जब मैँ तुमसे मिला था,
जब तुम मिली थी मुझसे,
तब यह प्रेम ही तो था,
जो मिला था हमसे,
जिसे साझा किया था,
मैँने तुमसे, तुमने मुझसे,
और प्रेम ने तुमसे-मुझसे।
जैसे सोई हुई अग्नि,
ढूँढती है चिगारी,
जैसे सोई हुई हवा,
ढूँढती है आग को,
मैं तुम्हेँ, तुम मुझे,
और प्रेम ढूँढता था.
तुमको और मुझको,
चिनगारी की तरह,
और फिर तुमने, मैंने,
हम दोनों  ने की भूल,
प्रेम  को  समझने  में,
उस प्रेम  ने हालाँकि,
नहीं  की  भूल  कोई !
और  हम सोचने  लगे,
क्या हुआ, क्यों हुआ,
किस वज़ह से हुआ,
प्रेम दोनों का, हमारा,
एक दिन धुआँ-धुआँ !
प्रेम तो है अनश्वर,
सातत्यरहित, शाश्वत्,
एक अग्नि-त्रिकोण,
नित्य और निरन्तर।
होता रहता है वह,
व्यक्त या अव्यक्त,
कभी अभिव्यक्त,
कभी अनभिव्यक्त !
बनता या मिटता  नहीं,
बनाता  या मिटाता नहीं,
सिमटता है या फैलता है,
अग्नि सा, ज्योति सा,
अँधेरे या रौशनी सा.
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