March 25, 2015

तलाश एक सिक्के की! / अंतर्द्वंद्व

आज की 2 कविताएँ
© Vinay Kumar Vaidya,
(vinayvaidya111@gmail.com)
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1.तलाश एक सिक्के की!
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देह के पार जाना था मुझे,
देह को कहीं नहीं जाना था,
देह को फिर भी पार जाना था,
अपार संसार से परे!
देह को ही तो पार उतरना था,
देह खुद ही किराया भी थी,
देह खुद ही नदी थी नौका थी,
देह खुद ही तो खेवैया थी,
देह एक सिक्का थी खोटा या खरा,
इसे भी वक्त ही करेगा तय,
फिर भी जाना है पार किसको यहाँ,
किसे पता है ये कहाँ है तय?
ये वो सिक्का है जिसे वक्त ने ही ढाला था,
एक दिन लौटाना भी होगा ही वक्त को वापिस,
एक दिन लौटना भी तो होगा ही!
फिर क्यों फैलाना हाथ दुनिया में,
किसी के आगे किराए के लिए,
वक्त से पार उतर जाऊँ अगर,
पार हो जाऊँगा मैं खुद के लिए....
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2.अंतर्द्वंद्व
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क्या अस्मिता देह है,
या है देह अस्मिता कोई?
क्या देह की अस्मिता है?
या अस्मिता की है देह कोई?
क्या 2 देह हैं, या हैं 2 ये अस्मिताएँ?
किसका है ये सवाल?
- देह का या अस्मिता का?
एक ही  तो है देह यह,
एक ही यह अस्मिता भी,
एक ही है जगत भी,
एक ही जगदात्मा भी,
फिर भी कैसा प्रपंच माया है?
जगत है देह जिसकी छाया है,
यद्यपि दोनों की 1 काया है,
जिसमें सभी-कुछ तो समाया है,
फिर भी वक्त यूँ ही भ्रम जगाता है,
भ्रम से खुद भी तो वह उपजता है,
खुद ही बनता है खुद ही खोता है,
खुद ही हँसता है, खुद ही रोता है.
खुद ही बँधता है, बाँधता है खुद को,
खुद ही फिर खुद से छूट जाता है,
खुद से कैसा है खुद का रिश्ता यह,
खुद से कैसा ये खुद का नाता है!
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