May 18, 2015

इस बारे में

इस बारे में  ?
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बहुत समय से इस बारे में सोचता रहा हूँ ।
अनेक बार कुछ लिखा भी,  लेकिन अभी तक उसे 'पब्लिश' करने से कतराता ही रहा।
लगता है, अभी भी यह 'पोस्ट' शायद  'ड्राफ़्ट' ही रहेगी।
मेरी आखिरी 'पोस्ट' जिसे इससे पहले लिखा था, मेरी एक संस्कृत रचना थी जिसे मैंने कोई शीर्षक नहीं दिया था।  उस रचना पर एक पाठक की 'प्रतिक्रिया' 'God bless you' के रूप में प्राप्त हुई थी । नाम का उल्लेख किए बिना बतलाना चाहूँगा कि उसने अपना परिचय एक 'Jesuit' के रूप में दिया था।
वर्ष 1970 में मैंने ग्यारहवीं उत्तीर्ण किया था और मेरे बड़े भाई द्वारा दिए गए 'सत्यार्थ प्रकाश' को पढ़ रहा था। यद्यपि उस ग्रन्थ की भाषा थोड़ी कठिन और अपरिचित सी लगती थी लेकिन उसकी विषय-वस्तु एक हद तक  रोचक भी थी।  वहीं से मुझे भारत में मौजूद बहुत से पंथों सम्प्रदायों और 'धर्मों' के बारे में पढ़ने को मिला। 'वेद' की महानता और स्वामीजी का अपना दृष्टिकोण मुझे प्रभावित जरूर करते थे लेकिन मुझे लगता था कि 'पुराणों' के प्रति उनके मन में सम्मान नहीं था।  'भागवत' की तो वे और कठोर आलोचना करते थे। और यह तो मानना ही होगा कि पंडे-पुजारियों ने 'धर्म' का जो रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है उससे यह कल्पना करना कठिन नहीं होगा कि महर्षि दयानंद सरस्वती (सत्यार्थ प्रकाश के रचयिता) के मन में 'भागवत' और 'पुराणों', रामायण और महाभारत की ऐसी प्रतिमा क्यों बनी होगी कि  वे इनके कट्टर विरोधी बन गए।
वर्ष 1983 में मुझे प्रथम बार 'I AM THAT' (जिसका हिंदी अनुवाद मैंने किया, जो 'अहं ब्रह्मास्मि' शीर्षक से वर्ष 2001 में प्रकाशित हुआ)  और श्री निसर्गदत्त महाराज से आध्यात्मिक जिज्ञासुओं की इस बातचीत के बारे में पता चला, और जब मैंने इसे पढ़ना प्रारम्भ किया, तो उसके 'संकलनकर्ता' मॉरिस फ्रीडमन  की प्रतिभा के बारे में पढ़कर जितना विस्मयमुग्ध हुआ उतना शायद और कभी नहीं हुआ।
'यहूदी' (Jew)  परंपरा के बारे में मुझे बचपन से ही उत्सुकता रही है और मेरा ख़याल है कि इस 'जाति' में जितने प्रतिभाशाली और विश्वविख्यात व्यक्ति हुए हैं उतने शायद ही किसी अन्य जाति में हुए होंगे। Albert  Einstein, Yehudi Manuhin, Sigmund Freud, जैसे लोग बिरले ही होते हैं, और इनके बारे में जानने की उत्सुकता मुझे हमेशा रही।  किन्तु उनके 'धर्म' के बारे में सदैव से विश्वसनीय जानकारी न मिल पाने से उनके बारे में प्रामाणिकता से कुछ लिखना मुझे हमेशा अनुचित प्रतीत होता रहा।
किन्तु जब मैंने वेदों में 'यह्व' (ऋग्वेद मण्डल 10) में विस्तार से पढ़ा तो मुझे इस बारे में विश्वसनीय ऐसा कुछ मिला जिससे 'Jew', 'Catholic' और 'Christianity' तथा 'Islam' की पारस्परिक अवस्थिति (stance) को मैं सूत्रबद्ध कर सकता हूँ।  मेरा कोई दावा नहीं है कि मेरी विवेचना त्रुटिरहित है, किन्तु मेरे अपने लिए तो अवश्य ही संतोषजनक है। लेकिन फिर भी उसे यहाँ व्यक्त करने से किसी की 'धार्मिक भावनाओं' को चोट लग सकती है इसलिए संयम रखते हुए उस बारे में कुछ नहीं लिखूंगा।
किन्तु जब ईसाई (कैथोलिक / प्रोटेस्टेंट / और दूसरे विभिन्न प्रकार के) मतावलम्बी मुझसे संपर्क करना चाहते हैं तो मुझे अवश्य ही दुविधा होती है, क्योंकि मुझे उस परम्परा से वैर नहीं तो ऐसा कोई लगाव भी नहीं है, और 'श्रद्धा' तो कतई नहीं है।
इसलिए जब चर्चों के द्वारा अन्य धर्मावलम्बियों को अपने मत में दीक्षित करने के बारे में पढ़ता हूँ, जब उनके बाल-यौन-शोषण के (सु?)समाचार दृष्टिगत होते हैं तो भी बस उपेक्षा ही करता हूँ।  लेकिन जब बारे में पढ़ता हूँ कि कैसे उन उन ईसाई 'मठों' में फँसे हुए कुछ अभागे बुरी तरह त्रस्त हैं और त्राण के लिए इधर उधर हाथ-पैर पटक रहे हैं, तो कभी कभी लगता है कि उनमें से यदि कोई मेरी ओर आशाभरी दृष्टि से देखता है तो मुझे उसकी सहायता करना चाहिए।  दूसरी ओर जब मुझे पता चलता है कि मैं ही अपनी खयाली दुनिया में ऊटपटाँग कुछ सोच रहा था, और वास्तव में मुझसे 'संपर्क' करनेवाला किसी भी चर्च से जुड़ा वह 'ईसाई' तो मुझे ही अपने 'मत' / 'विशवास' में दीक्षित करने के ध्येय से मुझसे संपर्क करना चाहता है, तो मुझे अपनी मूर्खता पर हँसी आ जाती है।
इस 'Jesuit' से जब  'God bless you' की प्रतिक्रिया मिली तो मैंने सोच लिया -
 '… और नहीं बस और नहीं, … ग़म के प्याले और नही …  "
और यह सब लिखते लिखते नज़र जाती है इस खबर पर   
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