June 24, 2015

आज की कविता / आत्मकथ्य


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आज की कविता / आत्मकथ्य
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एक ठहरा आसमाँ है आँखों में,
एक व्याकुल उन्माद भी पसरा हुआ,
जैसे मेघाच्छन्न से आकाश में,
घनघोर मेघों में सूरज छिपा हुआ,
किन पलों में फूट पड़ना है उसे,
अग्निज्वाला सा प्रखर है क्या पता,
या बरस पड़ना है अश्रुधार सा,
करुणा बन शीतल धार सा,
तड़ित् भी है छिपी प्रतीक्षा में जहाँ
मेघगर्जन घोर प्रचण्डनाद सा,
एक चेहरा आवरण में है छिपा,
एक चेहरा अपरिचित संवाद सा ।
गुमशुदा सा शख़्स हाँ लगता है ये,
इसकी तलाशी भी तो होनी चाहिए,
खोया खयालों में या है दुनिया में ये,
तफ़्तीश इसकी भी तो होनी चाहिए !
खोजें इसे हम या जमाना क्या पता,
खोजे ये ख़ुद को ही या हमको क्या पता,
खोजना लेकिन ज़रूरी भी तो है,
हर शख़्स ही तो है यहाँ पर लापता !
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