आज की कविता
एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,
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अतिथि तुम कब आओगे?
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देह पत्थर का बना भारी घर,
साँस बूढ़ी की तरह,
चढ़ती उतरती रहती है,
सीढ़ियाँ काठ की,
डगमगाती काँपती जर्जर,
और भूकंप के अंदेशे हरदम ।
हवा के चलने से,
खड़क जाती हैँ खिड़कियाँ जो कभी,
तुम्हारे आने का वहम होता है,
और इंतज़ार का हर इक लमहा
ख़त्म न होता हुआ तनहा सफ़र होता है ।
सिलसिला यूँ ही चल रहा है यहाँ,
बस यही रोज का है अपना बसर,
और यही आज की भी ताज़ा ख़बर!
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एक चिट्ठी - मृत्यु के नाम,
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अतिथि तुम कब आओगे?
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देह पत्थर का बना भारी घर,
साँस बूढ़ी की तरह,
चढ़ती उतरती रहती है,
सीढ़ियाँ काठ की,
डगमगाती काँपती जर्जर,
और भूकंप के अंदेशे हरदम ।
हवा के चलने से,
खड़क जाती हैँ खिड़कियाँ जो कभी,
तुम्हारे आने का वहम होता है,
और इंतज़ार का हर इक लमहा
ख़त्म न होता हुआ तनहा सफ़र होता है ।
सिलसिला यूँ ही चल रहा है यहाँ,
बस यही रोज का है अपना बसर,
और यही आज की भी ताज़ा ख़बर!
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