कविता : 16-10-2021
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तन व्याकुल, या मन व्याकुल,
या पूरा ही यह जीवन व्याकुल!
क्या वह चेतन, जिसमें हैं होते,
तन, मन, जीवन, वह व्याकुल,
हर कोई कहता है 'मैं' व्याकुल,
मेरा तन, मन, जीवन व्याकुल!
कैसी है यह दुविधा जिसमें,
हर कोई होता है व्याकुल!
यह तन, मन जड है, या चेतन,
यह 'मैं', 'मेरा', जड या चेतन,
'मैं', 'मेरा' फिर जो कहता है,
वह भी क्या जड है, या चेतन!
मन जिस जिस को भी माने,
मन जिस जिस को भी जाने,
जिससे मन जाना जाता है,
क्या वह जड है, या चेतन!
क्या वह चेतन तन या मन है,
क्या वह चेतन है, आता जाता?
तन या मन आते जाते हैं,
उनसे चेतन का क्या है नाता!
तन, मन से बँधा हुआ यह, 'मैं',
तन, मन में बिंधा हुआ यह, 'मैं',
जिसको 'मैं' हर कोई कहता,
उससे किसका है, क्या नाता?
यह 'मैं' पल-प्रतिपल बनता है,
यह 'मैं' पल-प्रतिपल मिटता है,
लेकिन यह पल-प्रतिपल भी तो,
'मैं' से ही बनता मिटता है!
इसी तरह से 'मेरा' भी,
यह विचार, यह भावना,
भूत-भविष्य या वर्तमान,
सत्य, या कि है कल्पना!
क्या कोई 'मन', 'मैं' होता है,
क्या कोई तन 'मैं' होता है?
क्या यह 'मन', 'मेरा' होता है,
क्या यह 'तन', 'मेरा' होता है?
क्यों ऐसी व्यर्थ कल्पना में,
आखिर 'मेरा' मन खोता है?
क्या वह चेतन, जिसमें तन, मन,
'मैं', 'मेरा' बनते-मिटते हैं,
क्या वह बनता या मिटता है,
क्या वह मिलता या खोता है?
क्या वह कह सकता है 'मैं',
फिर भी सदैव ही होता है,
क्या वह कह सकता है 'मेरा',
फिर भी वह निजता होता है!
यह निज चेतन, जो है सबका,
यह निज चेतन, जिसमें सब हैं,
यह निज चेतन जो निजता है,
है एक, अनेक, जैसा कुछ क्या!
उससे ही सब, सब-कुछ जानें,
उसे न लेकिन कोई जाने,
या फिर यूँ भी कह सकते हैं,
केवल वह ही निजता को जाने!
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संदर्भ :
केनोपनिषद्, खण्ड १,
न तत्र चक्षुर्गच्छति न वाग्गच्छति नो मनो न विद्मो न विजानीमो यथैतदनुशिष्यादन्यदेव तद्विदितादथो अविदितादधि ।
इति शुश्रुम पूर्वेषां ये नस्तद्वयाचचक्षिरे ।।३।।
यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।४।।
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।५।।
यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।६।।
यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिद्ँ श्रुतम् ।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते ।।७।।
।। प्रथम खण्ड समाप्त ।।
यही ब्रह्म, जिसे आत्मा, ईश्वर, गुरु और परमात्मा भी कहा जाता है वह चैतन्य (Awareness / Consciousness), चेतना (consciousness / sentience) या 'चेतन' है, जिसका उल्लेख गीता, अध्याय १० में इस तरह से है :
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः ।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना ।।२२।।
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