July 09, 2021

दर्द लेकर दर-ब-दर

अहं, अहंकार, अभिज्ञा, अभिमान, 

अभिधा, लक्षणा, व्यञ्जना,

-----------------©---------------

कविता : 09-07-2021

-------------©----------------

क्या मेरी अपनी कोई पहचान होना चाहिए!

क्या नहीं पहचानता (हूँ) असलियत भी मैं खुद की?

यूँ तो ये लगता है, सब पहचानते ही हैं खुद को ,

ये भी लेकिन सच नहीं, क्या जानते हैं वे खुद को!

मुमकिन है क्या, अनजान कभी, कोई होता हो खुद से?

हाँ जरूर हो सकता है, गा़फ़िल हो जाता हो खुद से!

अपने वजूद से क्या कभी इंकार कोई करता है?

फिर कभी होगा कोई, नावाकि़फ़ कैसे खुद से?

यही तो ग़फ़लत है अपनी, जान और पहचान में,

हकी़क़त में, जानने-पहचानने के, दरमियान में!

खुद को कोई जिस तरह से भी जाना करता है,

और अपने-आपको, जैसे कि पहचाना करता है,

'जान' पर 'पहचान' कोई, जब अपनी लाद लेता है,

अपने वजूद को भुलाकर ओढ़ लेता है जब ग़फ़लत,

खुद को, उसी तो भूल में, खुद ही तो बाँध लेता है!

लेकिन मगर उस भूल को जब वह जान लेता है,

खुद को, खुदी को भी तभी पहचान लेता है!

खुद से खुद की ही, जान-पहचान तक का सफ़र,

है बहुत दिलचस्प भी, इतना बहुत ही पुर-असर!

कोई मुसाफ़िर जब तलक करता नहीं है यह सफ़र,

तब तक भटकता रहता है, दर्द लेकर दर-ब-दर!

***




No comments:

Post a Comment