July 17, 2021

स्वार्थ-निःस्वार्थता

बाहर और परे! 

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बचपन से यही सोचा करता था :

जीवन का अर्थ और प्रयोजन क्या है? 

कहना न होगा कि यह प्रश्न (मन में) कहीं और से आया था। कौतूहल, और आश्चर्य! 

शायद उसी प्रश्न के इर्दगिर्द घूमते हुए पूरी उम्र बीत जाती, अगर उसे परे हटाकर :

"किसका जीवन?"

यह प्रश्न मन में न उठा होता! 

बुद्धि वहीं अटकी रहती, कि हम भी दूसरों की तरह ही इस दुनिया में आए हैं, और एक दिन दुनिया को छोड़ जाएँगे!

(जैसे "दूनी", "दुगुनी" का अपभ्रंश हो सकता है, उसी तरह शायद "दुनिया" भी, "दूनी" का अपभ्रंश हो सकता है!)

पर सवाल यह है कि क्या हम किसी ऐसी जगह से, और कहीं और से आते हैं, जो दुनिया से बाहर और परे है?

मतलब यह, कि शरीर की दृष्टि से, क्या हम उन्हीं तत्वों से नहीं बने हैं, जिनसे कि दुनिया बनी है! 

मतलब यह कि हम कहीं से भी आते हों, सबसे पहले तो हम शरीर में आते हैं (या अपने आपको अनुभव करते हैं), और 

"हम क्या हैं?"

इस बारे में कुछ सोचे बिना ही, हमारा ध्यान इस ओर गए बिना ही हम मान लेते हैं कि हम "कहीं" से आए हैं! 

सो फ़ॉर सो गुड! 

फिर हम यह कैसे कह सकते हैं कि शरीर मिटने पर हम "वहीं" लौट जाएँगे,  जहाँ से (हमें लगता है कि)  हम आए हैं!

तो,  

"जीवन किसका है?" 

या,

"Who's life is it, anyway?"

यह जानना ज्यादा ज़रूरी नहीं है?

हाँ मानता हूँ, कि यह सवाल कुछ बेढब ज़रूर हो सकता है,  लेकिन इसका जवाब जब तक नहीं खोजा जाता, तब तक हम "बोरियत" के प्रश्न से, "जीवन का प्रयोजन (या लक्ष्य) क्या है?", "ईश्वर क्या है?", "है या नहीं?" जैसे सवालों पर ही सिर पटकते रहते हैं, और अपने आपको किसी फिलासॉफी, परंपरा से जकड़ रखते हैं ।

तो सवाल यह है, कि क्या "मैं" अपने आपको जानता हूँ?

क्या यह प्रश्न कभी मन में उठता है? 

क्योंकि जीवन मेरे होने से ही है, न कि जीवन के होने से "मैं"!

क्या जीवन को "मेरा" कहा जा सकता है? 

कभी कभी यह भी कहा जाता है :

"वह प्रश्न / व्यक्ति / घटना / स्मृति / समय / अब मेरे जीवन में कहीं नहीं है!"

ऐसा कोई "जीवन", क्या याददाश्त से कोई अलग चीज़ हो सकता है?

क्या याददाश्त जीवन है? या जीवन सिर्फ याददाश्त भर है?

याददाश्त किसकी? 

याददाश्त से मेरा क्या रिश्ता है?

क्या हर रिश्ता सिर्फ याददाश्त ही नहीं होता? 

और, याददाश्त खो जाने पर क्या जीवन समाप्त हो जाता है?

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