हिन्दू और हिन्दुत्व
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इस ब्लॉग में किसी बहुत पहले के पोस्ट में स्वर्गीय श्री बलराज मधोक के 'भारतीयता' और 'भारतीय-करण' के विचार पर कुछ लिखा था।
उस समय के एक राजनीतिक दल "जनसंघ" के नेतृत्व ने जिस डर और जिस लालच से प्रेरित होकर उन्हें हाशिए पर रख दिया इस बारे में यही कहना उचित होगा कि जनसंघ का वह नेतृत्व आर.एस.एस. के नियंत्रण में, उसके मार्गदर्शन के अनुसार राजनीतिक महत्व के तमाम निर्णय करता था।
वह 'हिन्दू' और 'हिन्दुत्व' का प्रयोग राजनीति के औजार की तरह राजनैतिक 'ध्रुवीकरण' के लिए करना चाह रहा था, (और आज भी कर रहा है।) जो देश के लिए अन्ततः अत्यन्त घातक ही होगा।
श्री बलराज मधोक ने उस नेतृत्व की परवाह नहीं की, और वे अपने भारतीयता एवं भारतीयकरण के उस विचार पर डटे रहे जिसकी कीमत भी उन्हें चुकानी पड़ी।
आज सुबह आर.एस.एस. के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत के जो शब्द आकाशवाणी के प्रातःकालीन समाचार बुलेटिन में सुने, उनमें श्री बलराज मधोक जी के उसी विचार की प्रतिध्वनि जब सुनाई दी तो मुझे थोड़ा भी आश्चर्य नहीं हुआ।
श्रोताओं के किसी समूह को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा :
"हिन्दू-मुस्लिम को परस्पर जोड़ने से पहले तो हमें अपनी इस मान्यता को त्यागना होगा कि हम अलग अलग हैं।
हमारे डी.एन.ए. एक ही हैं। हाँ, हमारी पूजा-पाठ की पद्धति एक-दूसरे से भिन्न भिन्न हो सकती है, किन्तु हमारे डी.एन.ए. से यही प्रमाणित होता है कि हमारी राष्ट्रीयता भारतीय ही है। और हम सभी सबसे पहले तो भारतीय हैं, और इसके बाद ही हिन्दू या मुसलमान आदि हैं।"
यहाँ जो शब्द मैंने उद्धृत किए हैं, वे लगभग वही हैं, जैसा कि मुझे याद है और जैसा उसका अभिप्राय मैंने समझा।
किन्तु इससे जुड़ा एक विवादास्पद तथा विचारणीय प्रश्न और भी है जिसका उत्तर भी पुनः दो तरीकों से दिया जा सकता है।
वह है "राष्ट्र" और "देश" इन शब्दों की वैदिक-सनातन-धर्म के अन्तर्गत पाई जानेवाली धारणा, तात्पर्य, तथा व्यवहारिक प्रयोग और, इसी प्रकार से "वतन" तथा "मुल्क" शब्दों के व्यावहारिक प्रयोग के परिप्रेक्ष्य के अनुसार इन दोनों शब्दों का तात्पर्य।
संस्कृत में "राष्ट्र" शब्द संपूर्ण पृथिवी (earth, globe) के अर्थ में प्रयुक्त होता है और इसी संदर्भ में सनातन-धर्म सार्वभौम-धर्म है, न कि किसी देश-काल की सीमा से परिभाषित किसी स्थान से संबद्ध रीति रिवाज (ritual, custom, tradition) तक सीमित परंपरा आदि।
इस प्रकार जिसे religion कहा जाता है वह स्थान-विशेष और समाज के रीति रिवाजों आदि के अनुसार सर्वत्र भिन्न भिन्न होता है, जबकि धर्म पाँच सार्वभौम महाव्रत अर्थात् "यम" हैं जिनका उल्लंघन किसी भी स्थान, समय पर नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार "धर्म" या सनातन-धर्म सर्वत्र और सबके संबंध में एक ही है, जबकि religion अर्थात् रीति-रिवाज पूजा पाठ, उपासना इत्यादि जो "नियम" है, उसका स्वरूप देश-काल-परिस्थिति के अनुसार सदैव और सर्वत्र ही बदलता रहता है ।
इसीलिए "अहिंसा सत्य अस्तेय ब्रह्मचर्य अपरिग्रह" इन पाँचों का पालन सर्वत्र और सबके लिए अनुल्लंघनीय है, और उनमें से भी प्रथम "अहिंसा" है, जिसका तात्पर्य है किसी भी वस्तु या किसी भी प्राणिमात्र से वैर न रखना।
अहिंसा परमो धर्मः।।
इस प्रकार सनातन-धर्म की मूल प्रेरणा यही है कि हर मनुष्य को स्वयं ही अपने धर्म का आविष्कार करना होता है, और जानते या न जानते हुए भी किसी दूसरे के 'धर्म' का अभ्यास / अनुष्ठान करना, न सिर्फ अनिष्टकारी है, बल्कि मृत्यु की तरह भयावह भी है ।
(स्वधर्मे निधनं श्रेयो परधर्मे भयावहः)
इसलिए किसी पर भी लोभ या भय दिखाकर बलपूर्वक, अपनी धारणा को आरोपित करना मतान्तरण तो हो सकता है, किन्तु धर्मान्तरण कदापि नहीं हो सकता।
इसलिए वास्तविक "धर्म" का प्रचार किया ही नहीं जा सकता, और उसकी खोज स्वयं ही करना होती है।
भौगोलिक तथा वैज्ञानिक आधार पर भी इसलिए हिन्दू हो या मुसलमान, भारत में जिसका भी जन्म हुआ है उसे भारतीय कहना सर्वथा उचित ही है।
देर आयद, दुरुस्त आयद!
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