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यदि तुम किसी (के) बारे में नहीं सोचते, तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि कौन तुम्हारे बारे में (क्या) सोचता है!
पर सवाल यह भी नहीं है।
सवाल यह है कि तुम किसी (के) बारे में क्यों सोचते हो!
क्या इसीलिए नहीं कि किसी और या दूसरे से तुम्हें कोई अपेक्षा, डर है, -कोई कौतूहल, आकर्षण या आसक्ति है?
आसक्ति अर्थात् मोह और अज्ञान से पैदा हुई भ्रान्ति।
मोह अर्थात् अनित्य और नित्य में भेद न कर पाना।
अज्ञान अर्थात् पता नहीं है, यह भी न पता होना।
मोह और अज्ञान परस्पर आश्रित होते हैं।
शायद तुम्हें दूसरे की आवश्यकता होती हो।
पर सवाल यह भी है कि तुम आवश्यकता का भी विचार ही क्यों करते हो?
तुम अतीत या भविष्य का विचार ही क्यों करते हो!
और, सवाल यह भी है कि क्या वर्तमान के बारे में विचार किया भी जा सकता है?
क्या विचार (के) आते ही तुम इस वर्तमान से कटकर तत्काल ही किसी काल्पनिक समय (जो अतीत या भविष्य होता है) में नहीं चले जाते?
किन्तु अपने बारे में सोचने पर भी क्या ऐसा ही नहीं होता?
सवाल यह भी है कि क्या वाकई तुम सोचते हो, या विचार ही आते-जाते हैं और तुम्हें लगता है कि तुम सोचते हो!
क्या सोच-विचार से पृथक् उनका कोई ऐसा नियंत्रणकर्ता होता भी है, जिसे तुम अपने-आप या स्वयं की तरह जान सको?
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