संदर्भ : प्रत्यभिज्ञाहृदय
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अपने स्वाध्याय ब्लॉग में क्षेमराज-विरचित प्रत्यभिज्ञाहृदयः नामक ग्रन्थ यथावत् पोस्ट कर रहा हूँ।
वैसे भी संस्कृत भाषा को टाइप-सेट करने में कठिनाई और कोई दूसरी भूल होने की संभावना बनी रहती है, फिर ऐसे किसी मूल ग्रंथ का अभिप्राय दूसरी किसी भाषा में अनुवाद के माध्यम से सही सही व्यक्त कर पाना तो और भी अधिक शंकास्पद है।
आज सुबह 14 जुलाई को लिखा एक पोस्ट चेक किया तो ऐसी ही एक भूल पर ध्यान गया।
मूलतः यह इस प्रकार से है :
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'अख्यातिर्यदि न ख्याति ख्यातिरेवावशिष्यते।
ख्याति चेत् ख्यातिरूपत्वात् ख्यातिरेवावशिष्यते।।'
इति। अनेनैव आशयेन श्रीस्पन्दशास्त्रेषु
'यस्मात्सर्वमयो जीवः..............।'
इत्युपक्रम्य
'तेन शब्दार्थचिन्तासु न सावस्था न यः शिवः।।'
इत्यादिना शिवजीवयोरभेद एव उक्तः। एतत्तत्वपरिज्ञानमेव मुक्तिः, एतत्तत्वापरिज्ञानमेव च बन्धः, --इति भविष्यति एव एतत् ।।४।।
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उस भूल को सुधार दिया।
अब मेरा यह विचार दृढ हो चुका है कि किसी भी भाषा के किसी भी ग्रन्थ को उसके मूल रूप में ही पढ़ना उसके अभिप्राय से अवगत होने का सही तरीका है। शास्त्र के विषय में तो यह और भी अधिक आवश्यक प्रतीत होता है।
अनुवाद की परंपरा से ही दर्शनशास्त्र की भूलभुलैया उत्पन्न हुई है, क्योंकि अनुवाद के माध्यम से बहुत से अनधिकारी भी शास्त्र के मूल अभिप्राय को जाने-अनजाने या जान-बूझकर भी, तोड़ -मरोड़ कर, अर्थ का अनर्थ करते हुए अपना विशिष्ट ध्येय सिद्ध कर लेते हैं । उनके अनुयायी भी उन पर अपनी अंधश्रद्धा होने के कारण उस विशिष्ट मत का आग्रह करने लगते हैं।
किसी ग्रन्थ का जो अभिप्राय होता है, उसे सिद्धान्त अर्थात् मत मानकर उससे राजी होना या न होना एक बात है, और उसका यथावत् अनुवाद करना इससे बहुत भिन्न प्रकार की बात है।
उपरोक्त उदाहरण में :
"शिवजीवयोरभेद एव उक्तः।"
के सिद्धान्त से कोई राजी, या राजी न हो सकता हो, यह उसका अपना दृष्टिकोण है, किन्तु इसलिए उसके स्वाभाविक अर्थ की उपेक्षा कर उस पर कोई अन्य अर्थ आरोपित करना अवांछनीय ही है।
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