कविता : 23-07-2021
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जानता है कौन तुमको, फ़िक्र क्यों करते हो तुम,
खो रहे किस सोच में, किन ख़यालों में हो गुम!
जानता है कौन किसको, सबको है बस यह वहम,
कोई मेरा है जिसे मैं जानता हूँ सबमें है यही भरम।
कौन तुमको क्या बताये, क्या है वो, हो कौन तुम,
खुद तुम्हारी खोज ही पैमाना है यह जानो तुम,
दोष मत देना धरम को, गुरु को, या किसी किताब को,
पहले परखो खुद को ही फिर परखना मुर्शीद को।
जैसे तुम हो वैसा ही तुमको मिलेगा कोई और,
पहले तो खुद को ही जानो, ढूँढना फिर कोई ठौर।
जब तक न पहचानोगे खुद को, कैसे जान सकते हो?
जब तक न समझ लोगे, खुद को, कैसे मान सकते हो?
और क्या खुद को भी लेकिन, तुम नहीं हो जानते?
बस यही मुश्किल है लेकिन, तुम नहीं पहचानते!
जान क्या, पहचान क्या, जान की पहचान क्या,
पहचान की भी जान क्या, सच है क्या, ईमान क्या?
पहचान सारी याद है, याद ही पहचान है,
पहचान ही तो याद है, याद ही पहचान है!
याद की यह पहचान, पहचान की और याद,
याददाश्त खयाल है, खयाल भी है याददाश्त!
याददाश्त, पहचान भी, बनती मिटती रहती है,
लेकिन तुम्हारी जान ना मिटती है ना ही बनती है।
बस कभी होती उजागर, तो कभी होती विलीन,
हाँ कभी बेपर्दा तो, होती कभी पर्दानशीन!
बस तुम्हीं इस खेल में, भूल जाते हो ये फ़र्क़,
जो तुम्हारी जान और पहचान, दोनों के है बीच!
जान है, तो जहान है, यह जान ही ईमान है,
जान की पहचान नहीं, पहचान सब बेजान है!
भेद लो इस भेद को, तो मसला हो जाएगा हल,
इसके लिए लेकिन तुम्हें ही, खुद ही करना है पहल!
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