अहं, त्वं, तत्, इदम्
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तव तत्त्वं न जानामि, कीदृशोऽसि महेश्वर।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।।
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अस्मद्, युष्मद्, और तत् तीन ही सर्वनाम एकमेव 'अहं' सर्वनाम के विस्तार हैं। इसी का एक पर्याय है 'इदम्' ।
इन्हें 'प्रत्यय' भी कहा जाता है।
जो प्रतीत होता है, जिसे प्रतीति की तरह ग्रहण कर लिया जाता है और व्यवहार में जिसे प्रयोग में लाया जाता है उसे प्रत्यय कहा जाता है।
'अस्मद्' अर्थात् 'मैं' या 'हम' प्रत्यय ऐसा ही सर्वनाम है, जिसे 'अपने लिए' के अर्थ में प्रयोग किया जाता है।
अपना अस्तित्व और अपने अस्तित्व का भान, परस्पर अभिन्न, अनन्य, और अविभाज्य (त्रि)कालरहित सत्य हैं ।
इसके बाद ही किसी अन्य तत्व के विषय में कुछ भी कहा जा सकता है। यहाँ तक कि 'काल' को यद्यपि अनादि समझा जाता है, किन्तु उस काल की अवधारणा का जन्म या सत्यता की प्रतीति भी अपने अस्तित्व और उस अपने अस्तित्व के भान के बाद ही हो सकती है। इसलिए 'काल' प्रतीति और प्रत्यय मात्र है।
अपने को (अर्थात् आत्मा को) शरीर मात्र समझना उपयोगी है, किन्तु वह एक व्यक्त विचार की तरह ही सत्य है, अपनी निजता या वास्तविकता नहीं है। इसी प्रकार काल और स्थान (Time & Space) प्रत्यय या विचार मात्र हैं, न कि अस्तित्व की तरह विद्यमान सत्यता।
जबकि 'निजता' काल-स्थान से स्वतन्त्र अपनी वास्तविकता है, न कि कोई विचार या अवधारणा । 'निजता' को शब्द न दिया जाए, तो भी वह अस्तित्व और उस अस्तित्व का भान है, उसे 'अपना' का विशेषण दिए बिना भी, वह नित्य, चिरंतन, स्वतः-सिद्ध वास्तविकता (reality) और सत्य है।
यह भान ही चेतना है, जो अपने-पराये के भेद से रहित स्थिति है। इसी भान के अन्तर्गत 'अस्मद्', विचार की तरह प्रकट और अप्रकट होता रहता है, और एक आभासी (छद्म) प्रतीति का उद्भव होता है। व्यवहार में इसे ही 'व्यक्ति' की तरह, दूसरों से अलग, अपना स्वतंत्र अस्तित्व मान लिया जाता है, जो काल-स्थान-सापेक्ष होने से अवास्तविक (unreal) है।
इस प्रकार 'अहं' से 'अहंकार' रूपी कृत्रिम सत्ता का उद्भव होने के बाद ही, 'त्वं' के रूप में अपने जैसे किसी दूसरे चेतन को 'तुम' कहकर संबोधित किया जा सकता है।
अपनी सीमित क्षमता, सामर्थ्य और शक्ति को अनुभव करते हुए अपनी अपेक्षा अधिक क्षमता, सामर्थ्य और शक्ति से युक्त किसी चेतन 'दूसरे' अस्तित्व (ईश्वर या महेश्वर) की कल्पना की जाती है और उसे ही, संसार की समस्त गतिविधियों का एकमात्र नियन्ता तथा संचालनकर्ता मान लिया जाता है।
तब उसे 'त्वं' पद से संबोधित कर उसकी प्रार्थना की जाती है।
उस 'त्वं' से कहा जाता है :
तव तत्त्वं न जानाति कीदृशोऽसि महेश्वर ।
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमो नमः।।
अस्तित्व और अस्तित्व के भान में अपने और उसके अस्तित्व की परस्पर अभिन्नता और अनन्यता तो असंदिग्ध ही है।
इसी प्रकार 'तत्' अर्थात् 'वह' पद से इंगित और 'अहं' तथा 'त्वं' से भिन्न, तीसरा सर्वनाम 'सः', 'सा' 'तत्' प्रत्यय किसी तीसरे जड या चेतन अस्तित्व के द्योतक के अर्थ में क्रमशः प्रयुक्त होता है।
'तत्' की ही तरह 'इदम्' 'इयम्' और 'एतत्' पदों (शब्दों) को 'यह' के अर्थ में क्रमशः पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग रूपों में प्रयोग किया जाता है।
उस महेश्वर को शिव, शक्ति या परब्रह्म की तरह व्यक्त करने के लिए इस प्रकार अपनी भावना के अनुसार ज्ञेय या अज्ञेय मान लिया जाता है।
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संसार की दृष्टि से, शरीर, मन और आत्मा (स्व / स्वयं) यही तीन मौलिक तत्त्व हैं, और इनका पारस्परिक संबंध ही जीवन अर्थात् 'चेतनता' है। ये चारों अन्योन्याश्रित एकमेव, अभिन्न, अविभाज्य वास्तविकता हैं ।
इस प्रकार 'चेतनता', जीवन या 'भान' निर्वैयक्तिक तत्व है, किन्तु उसे शरीर-विशेष व्यक्ति से संबद्ध मानकर अपना एक आभासी और स्वतंत्र अस्तित्व, बुद्धि में वास्तविक के स्थान पर स्थापित हो जाता है। बुद्धि वैयक्तिक होती है, जबकि जिस 'चेतनता' में व्यक्त और अव्यक्त होती है, वह 'चेतना' अर्थात् 'जीवन' नितान्त निर्वैयक्तिक है।
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