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विचार और अस्तित्व
उसी क्रम में, 'चेतना' के सन्दर्भ में देखें तो अस्तित्व ही चेतना है, और चेतना ही अस्तित्व है। चेतना के लिए अन्य शब्द 'भान' का प्रयोग किया जाता है या किया जा सकता है।
पातञ्जल योग सूत्र में तथा संस्कृत के व्याकरण शास्त्र में प्रत्यय शब्द का प्रयोग,
"प्रतीयते विधीयते इति प्रत्ययः" के अनुसार प्रयुक्त होता है।
इस प्रकार किसी शब्द के साथ किसी प्रत्यय को संयुक्त करने पर उस शब्द के तात्पर्य के बदलने का कार्य प्रत्यय के माध्यम से होता है। अंग्रेजी भाषा में इसे suffix, prefix, infix कहा जाता है। Arabic भाषा में और उसी रीति से उर्दू में केवल प्रत्यय के ही प्रयोग से असंख्य शब्द बनाए जाते हैं जिनसे ऐसे व्युत्पन्न शब्द के विशेष अर्थ को व्यक्त किया जाता है।
किन्तु पातञ्जल योग सूत्र में प्रत्यय का तात्पर्य है 'बोध', जो कि भावगत, विचारगत, बुद्धिगत हो सकता है। कोष के अनुसार इस शब्द का अर्थ है ज्ञान जो अंग्रेजी भाषा के perception शब्द का समानार्थी है।
ज्ञान के तीन पक्ष हैं ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञात अर्थात्
Knower, whatever that one may try to know, and the known.
ज्ञाता पुनः कोई चेतन सत्ता (entity) ही होता है जो किसी दूसरे को जानने या न जानने की स्थिति में भी अपने आप के बोध से युक्त होता है। यह बोध मूलतः न तो भावगत, न विचारगत और न ही बुद्धिगत हो सकता है क्योंकि यह भाव, विचार या बुद्धि के अभाव में भी विद्यमान होता ही है । जैसे ही इस सहज और स्वाभाविक बोध में अन्य अपने से भिन्न किसी दूसरे विषय का प्रवेश होता है तत्क्षण ही उस भिन्न विषय / वस्तु (object) को 'यह' 'वह' अथवा 'तुम' के रूप में अनुभव किया जाता है। इसी के साथ युगपत् (simultaneously) अपने आपको 'मैं' अर्थात् 'अहं' के रूप में स्वीकार किया जाता है।
संस्कृत के व्याकरण के अन्तर्गत 'मैं', 'तुम' तथा 'यह', 'वह', 'जो', 'कौन' ही क्रमशः उत्तम पुरुष, मध्यम पुरुष तथा अन्य पुरुष के रूप में अस्मत् / अस्मद्, युष्मत् / युष्मद् और तत् / अदस् इत्यादि सर्वनाम प्रत्यय होते हैं ।
अस्मद् से अस्मि तथा I AM, युष्मद् से YOU तथा तत् से THAT, इदम् से IT की समानता से यह कहा जा सकता है कि यह केवल संयोगजन्य (coincidental) नहीं है। एक और प्रत्यय है 'त्वं' जो 'त्व' की तरह GREEK / LATIN 'THOU' का मूल है। 'WE' का साम्य और अर्थ 'वयं' से दृष्टव्य है।
बोध का अस्तित्व और अस्तित्व का बोध / ज्ञान / प्रत्यय, भाषा के उद्भव से भी पूर्व से ही स्वप्रमाणित ही है ।
यह बोध ही वह अधिष्ठान है जिसे चेतना कहा जाता है, जो कि अहं, त्वं, तत्, इदं आदि प्रत्ययों से युक्त होते ही अपने और अपने संसार का कारण होता है।
गीता के अध्याय १० तथा अध्याय १३ में इस शब्द का प्रयोग इन दो श्लोकों में दृष्टव्य है, :
वेदानां सामवेदोऽस्मि देवानामस्मि वासवः।
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि भूतानामस्मि चेतना।।२२।।
तथा,
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतना धृतिः।
एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतः।।६।।
इस प्रकार चेतना वस्तुतः शुद्ध बोधस्वरूप चैतन्य होते हुए भी, विकार से युक्त होने पर जीव-चेतना के रूप में उसे क्षेत्र कहा गया है, जबकि जीव-चेतना में प्रतिबिम्बित उस चैतन्य को क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।
प्रसंगवश यहाँ अध्याय १३ के ही इन दोनों श्लोकों का उल्लेख किया जा सकता है :
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।
एतद्यो वेत्ति तं प्राहुः क्षेत्रज्ञ इति तद्विदः।।१।।
क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्वक्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञानं यत्तज्ज्ञानं मतं मम।।२।।
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