कविता : 31-07-2021
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प्यास और प्रतीक्षा!
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अघाते ही नहीं, लुब्ध नेत्र देखते हुए,
तृप्त होते हुए भी, पान करते हैं निरंतर,
तृषित रहते हैं, पल भर भी जो अगर, न देखें,
चित्र अद्भुत, चितेरे को भूलकर!
मन मगन-मन सोचता भी है कभी,
क्या चितेरे को मैं देखूँगा कभी!
क्या मिलेगा देख भी लूँ यदि उसे,
भूल जाऊँगा अगर मैं खुद को ही!
इस पहेली को तो पहले बूझ लूँ,
बूझ लूँगा, अगर तो सोचूँगा फिर,
कहाँ रहता है चितेरा, जान लूँ तो,
पता बतला सकूँगा, किसी को फिर!
उस घड़ी तक चित्र ही मेरे लिए,
मेरे इस जीवन का प्राणाधार है,
इससे ही तो है जीवन, मेरा यह,
इससे ही तो यह सकल संसार है!
करनी ही होगी प्रतीक्षा तब तक मुझे,
उस घड़ी की पूरी ही उम्र भर,
देख पाऊँ जिस घड़ी चितेरे को,
देखता ही रहूँगा अपलक सतत!
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