सर्ग ३
हरिर्यथैक: पुरुषोत्तमः स्मृतो
महेश्वरस्त्र्यम्बक एव नापरः।
तथा विदुर्मां मुनयः शतक्रतुं
द्वितीयगामी नहि शब्द एष नः।।४९।।
***
इन्द्र ने कहा :
जिस प्रकार "हरि" शब्द का प्रयोग केवल पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु के ही लिए, "महेश्वर" शब्द का प्रयोग केवल त्र्यम्बकेश्वर भगवान् शिव के लिए ही किया जाता है, वैसे ही "शतक्रतु" शब्द का प्रयोग केवल मेरे ही लिए किया जाता है।
(इसलिए जब कोई मनुष्य एक सौ अश्वमेध यज्ञ कर लेता है तो वह दूसरा इन्द्र हो जाता है। और यह मुझे स्वीकार नहीं है। इसीलिए मैं ऐसे मनुष्य के यज्ञ का अश्व चुरा लेता हूँ। इसीलिए मुझे हरिताश्व भी कहते हैं। किन्तु हरिताश्व होने का एक अर्थ यह भी हुआ कि मेरे रथ में जोते जानेवाले अश्व हरे रंग के हैं।)
पिछला पोस्ट लिखते समय उपरोक्त कहानी मुझे याद आई।
आज ही अपने swaadhyaaya blog में उसी प्रश्न :
Can Science ever explain the mystery of the consciousness?
का उत्तर देने का प्रयास किया।
एक कहानी और याद आ रही है, जो उस चोर के बारे में है जिसने किसी विवाहोत्सव में चोरी की, और जब चोरी होने का पता चला और लोग चोर को ढूँढने की कोशिश कर रहे थे तो वह उनकी इस कोशिश में कुछ और अधिक उत्साह से शामिल हो गया, और मौका मिलते ही रफू-चक्कर हो गया।
आज के विज्ञान की भूमिका इसी प्रकार की है। विज्ञान 'चेतना क्या है?', इस बारे में बहुत जोर-शोर से खोजबीन करने का नाटक कर रहा है जबकि विज्ञान स्वयं ही बुद्धि का परिणाम है, और बुद्धि स्वयं भी, चेतना का ही परिणाम मात्र है। क्या कोई परिणाम अपने कारण (के उद्गम) को जान सकता है? क्या कोई पुत्र अपने पिता के जन्म को जान सकता है?
इस कहानी को मैंने पहली बार श्री रमण महर्षि के साहित्य में पढा़ था। जहाँ इसका उल्लेख मन अर्थात् अहंकार के संदर्भ में किया गया था। आशय यह कि क्या मन / अहंकार कभी अपने-आप को जान सकता है? हाँ, वह ऐसा प्रयास करने का नाटक अवश्य कर सकता है, और इस प्रकार से अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करता रह सकता है। किन्तु जब कोई मनुष्य, मन / अहंकार का उद्भव जहाँ से होता है, उस स्रोत का अनुसंधान करता है, तो मन / अहंकार बस विलीन हो जाता है।
इसी प्रकार विज्ञान अर्थात् वैज्ञानिक जब अपने हृदय में ही उस स्रोत की खोज करेगा जहाँ से बुद्धि का आगमन होता है, तब वह जान पाएगा कि चेतना क्या है!
इसे इस प्रकार से भी समझा जा सकता है :
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ।।४२।।
(गीता, अध्याय३)
विज्ञान बुद्धि की उपज है और बुद्धि तक ही उसकी मर्यादा है। चेतना बुद्धि की पकड़ से परे की वास्तविकता / सत्य है।
***
No comments:
Post a Comment