July 07, 2021

देर आयद दुरुस्त आयद!

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ / R.S.S.

(Really Simplified Solutions) 

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अभी दो तीन दिनों पहले "सुबह का भूला" शीर्षक से एक पोस्ट इसी ब्लॉग में लिखा था। 

इसी सन्दर्भ में एक पोस्ट अंग्रेजी भाषा के मेरे ब्लॉग :

vinayvaidya 

में लिखा था किन्तु संतोष न होने से उसे डिस्कार्ड कर दिया था। संक्षेप में यही कि उसे लिखने का विचार राहुल रौशन के 'संघी' विषयक लेख : 

 (A Sanghi who never went to Shakha) 

को पढ़कर मन में आया था ।

सबसे पहले R.S.S. अर्थात् राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अस्तित्व से मैं उस समय अवगत हुआ था, जब मेरे गाँव में शाखा के एक कार्यकर्ता ने मुझसे इसका आग्रह किया था। उस समय मैं कक्षा ९ या १० में पढ़नेवाला छात्र था।

एक दिन शाम शाखा में जाकर लौटा, और उस कार्यकर्ता ने मुझे R.S.S. संगठन के बारे में कुछ समझाया। 

हिन्दू एवं हिन्दुत्व क्या है, हिन्दू-राष्ट्र क्या है, राष्ट्रवाद क्या है, और हिन्दुओं को क्यों संगठित होना चाहिए, इस बारे में R.S.S. की क्या भूमिका और दृष्टि है, उसने मुझे समझाया। 

उसने पढ़ने के लिए मुझे दो पुस्तकें भी दीं, जिसमें R.S.S. के संस्थापक श्री हेडगेवार से संबंधित कुछ जानकारी और उनका जीवन-चरित्र भी था। 

उन पुस्तकों को पढ़कर मुझे यह लगा कि यह संस्था अवश्य ही हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्य पैदा करने का प्रयास कर रही है। हालाँकि तब मेरी बुद्धि इतनी परिपक्व भी नहीं हुई थी (जैसी कि शायद आज है), और मैं सतर्कता एवं सावधानी से यह देख और सोच-समझ पाता कि हिन्दू या मुसलमान, भारतीय या ऐसे ही, कांग्रेसी, कम्युनिस्ट, या और कुछ भी होना केवल मान्यता और धारणा ही है न कि जीवन की वास्तविकता। और  किसी भी मान्यता में अपने आपको परिभाषित कर लेना तथा मानसिक दुराग्रह में जकड़ लेना तात्कालिक रूप से ज़रूरी और उपयोगी भी हो सकता है, किन्तु मूलतः भ्रान्तिपूर्ण ही है।

तब मैं स्कूल में प्राप्त हुई शिक्षा के वातावरण से प्रभावित होकर महात्मा गांधी के विचारों से प्रेरित था और इसलिए भी R.S.S. की रीति-नीति मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगी। 

बाद में कॉलेज और विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए भी, कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आया जो R.S.S. या ऐसी किसी राजनैतिक विचारधारा के समर्थक या विरोधी थे, और निरंतर एक दूसरे से बहस करते रहते थे।

बहुत बाद में जब श्री बलराज मधोक के भारतीय, भारतीयता और भारतीयकरण विषयक विचारों को पढ़ा तो मुझे लगा कि इस व्यक्ति ने हमारे समय की समस्या को न सिर्फ बेहतर ढंग से समझा है, बल्कि उसका व्यावहारिक हल व समाधान भी हमारे सामने रखा है।

हिन्दू, मुसलमान, यहूदी, कैथोलिक, ईसाई या पारसी, भारतीय,  अमरीकी, रूसी, चीनी इत्यादि होना हमारी भौतिक सत्यता नहीं हो सकता, न उसका भौतिक सत्यापन करना ही संभव है, और उसे एक कामचलाऊ और उपयोगी मान्यता भी ज़रूर समझा जा सकता है, क्योंकि वह हमारी सामाजिकता की पहचान मात्र है, मूलतः उसमें ऐसा कोई तत्व है ही नहीं जिसे दृढ़ और / या पुष्ट किया जा सके।

फिर भी देश के लोगों की यह सामाजिक व्यवस्था सुचारु रूप से चले इसके लिए आवश्यक है कि विभिन्न सामाजिक संरचनाओं  के बीच सामंजस्य रखते हुए ऐसा प्रबंध किया जा सके जिससे शासन (government) सबके कल्याण, प्रगति, सुख-समृद्धि को सुनिश्चित कर सके। अनेक दलों की व्यवस्था (प्रणाली) के होने से सत्ता और प्रतिपक्ष के बीच सतत टकराहट होती रहती है जिससे हमारी ऊर्जा का ह्रास ही होता है ।

यदि राजनीति और शासन, दलों और विचारधारा पर आधारित न होकर व्यक्ति और प्रतिनिधित्व-आधारित हो, सभी प्रतिनिधि मिलकर अपने बीच से अपने नेता का चुनाव करें और वह सदन का प्रमुख हो, तो भी हम बेहतर कार्य कर सकते हैं। 

महात्मा गांधी की पंचायती राज की कल्पना शायद यही रही होगी।

यह एकदलीय शासन (जैसा कि चीन में है,) से बहुत भिन्न है, और R.S.S. यदि हिन्दुत्व आधारित राजनीति को त्याग कर इस प्रकार के गांधीवाद पंचायती राज के स्वप्न को साकार करे तो वह अवश्य ही प्रशंसनीय होगा।

यदि हम ग्राम-पंचायत, जिला-पंचायत, नगर-पंचायत आदि के मॉडल पर सोच सकते हैं, तो राष्ट्रीय पंचायत के बारे में क्यों नहीं!

इतना ही नहीं, आगे चलकर शायद विश्व-पंचायत के बारे में भी! 

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