July 01, 2021

गलत सवालों के बीच

संवाद और विवाद

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जो बात प्रायः झकझोरती है, वह यह कि हर मनुष्य अकसर ही कितनी गलतफहमियों का शिकार होता है! वह व्यक्ति जो कुछ दिनों तक जेल में बन्द था, इस धारणा से ग्रस्त था कि वह हिन्दू है। जेल में रहते हुए उसे ऐसा व्यक्ति मिला, जो इस धारणा से ग्रस्त था कि वह मुसलमान है। 

दोनों के बीच बातचीत हुई तो उस व्यक्ति ने जो अपने आपको मुसलमान मानता था, अपने आपको हिन्दू माननेवाले से पूछा :

1.संसार के स्वामी की वह प्रतिमा, जो कि अपनी स्वयं की ही रक्षा नहीं कर सकती, वह उसकी उपासना करनेवाले की रक्षा कैसे कर सकती है?

2. क्या संसार का स्वामी एक ही नहीं है? 

ये दोनों तर्क अब्राहमिक परंपरा (क्या इसे धर्म कहा जा सकता है! जो केवल परंपरा और कल्ट है) में  अवश्य सबको मान्य हैं ।

अपने आपको हिन्दू माननेवाला व्यक्ति इन दोनों प्रश्नों का उत्तर न दे पाया और उसने इस विश्वास को सत्य की तरह स्वीकार कर लिया और उसने उसे उसके इस्लामी प्रारूप में अपना भी लिया। 

यदि वह थोड़ा भी जागरूक, सावधान, सतर्क और समझदार होता, और किसी परंपरा या सम्प्रदाय-विशेष के मत की बजाय वास्तविक धर्म को जानने में उसकी जिज्ञासा होती, तो शुरू से ही इन प्रश्नों को उनके उचित परिप्रेक्ष्य में देखकर सोचता कि क्या किसी प्रतिमा की उपासना केवल इसलिए की जाती है, कि वह हमारी रक्षा करे? क्या ईश्वर अर्थात् संसार के स्वामी के प्रति भक्ति, प्रेम, सम्मान और आदर, और उसके उस असीम, अनंत स्वरूप को न समझ पाने के कारण उसकी एक प्रतीकात्मक मूर्ति की तरह उससे संबद्ध होने के उद्देश्य से भी कोई उसकी इस प्रकार से पूजा, उपासना, आदि नहीं कर सकता? 

याद आता है स्वामी विवेकानन्द जब रामनाड के राजा से मिले थे उस समय उन्होंने मूर्तिपूजा के संबंध में ऐसा ही संशय स्वामी विवेकानन्द के सामने रखा था। 

जहाँ वे बैठे हुए थे, उस कक्ष में राजा के पिता की एक तसवीर लगी हुई थी।

स्वामी विवेकानन्द ने उनसे पूछा :

"ये कौन हैं?" 

राजा ने उत्तर दिया :

"मेरे स्वर्गीय पूज्य पिताजी!"

"क्षमा करें, ये आपके स्वर्गीय पूज्य पिताजी हैं, या किसी चित्रकार के द्वारा बनाया गया उनका चित्र?"

"हाँ वैसे तो यह बस एक चित्र ही है, किन्तु इसे देखते ही मुझे उनका स्मरण हो आता है।'

"और स्मरण के ही साथ उनके प्रति आदर की भावना भी मन में जागृत होती होगी!"

"अवश्य ही!"

इसी प्रकार, क्या किसी प्रतिमा के माध्यम से हम ईश्वर के प्रति अपनी भक्ति और भावना नहीं व्यक्त कर सकते?

"क्या ईश्वर एक नहीं है?"

राजा के इस दूसरे प्रश्न के उत्तर में स्वामी विवेकानन्द ने कहा :

"जो जल ग्रीष्म-ऋतु में सूखकर उड़ जाता है, और वर्षा-ऋतु में पुनः बरसता है, जिससे धरती पर जीवन है, क्या वह जल एक नहीं है?"

"हाँ, और नहीं भी, क्योंकि उस पर एक अथवा अनेक यह शब्द नहीं लागू होता!"

"क्या ईश्वर को एक अथवा अनेक शब्द तक सीमित किया जा सकता है? दूसरा उदाहरण जीवन का लें। क्या जीवन को एक या अनेक में बाँटा जा सकता है?"

(बरसों पहले कहीं उपरोक्त प्रसंग पढ़ा था। एक मित्र से इसकी पुष्टि चाही कि यह कितना सही या गलत है, तो उन्होंने कहा : यह प्रसंग अलवर के राजा से स्वामी विवेकानन्द की भेंट होने के समय का है। शायद ऐसा ही हुआ हो! जो भी हो, वह तथ्य गौण महत्व रखता है, ऐसा कहा जा सकता है।) 

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